Jain Dharm and Bauddh Dharm in Hindi free download-1
धर्म के उदय के कारण -
- उत्तर वैदिक काल में समाज स्पष्टतः चार वर्णों में विभाजित था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। प्रत्येक वर्ण के कर्त्तव्य अलग-अलग निर्धारित थे। अब वर्ण का निर्धारण कर्म पर आधारित न होकर जन्ममूलक था।
- वर्णव्यवस्था में जो जितने ऊंचे वर्ण का होता था,वह उतना ही शुद्ध और सुविधाधिकारी समझा जाता था। अपराधी जितने ही निम्न वर्ण का होता, उसके लिए सजा दंड ही कठोर होती थी।
- क्षत्रिय लोग जो शासक के रूप में काम करते थे, ब्राह्मणों के धर्म विषयक प्रभुत्व प्रबल आपत्ति करते थे।
- विविध विशेषाधिकारों का दवा करने वाले पुरोहितों या ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना , नए धर्मों के उदभव का अन्यतम कारण हुआ।
- जैन धर्म के संथापक वर्द्धमान महावीर और बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध दोनों क्षत्रिय वंश के थे तथा दोनों ने ब्राह्मणों की मान्यता को चुनौती दी।
- 600 ई. पू. के आस पास लोहे का प्रयोग बढ़ने से मध्य गंगा के मैदानों अधिक संख्या में बसने लगे। लोग लोहे के औजार से जंगलों की सफाई,खेती और बड़ी-बड़ी स्थाई बस्तियाँ संभव हुई। इस काल में पूर्वोत्तर भारत में अनेक नगरों की स्थापना ही। जैसे-कौशाम्बी ( प्रयाग के समीप ), कुशीनगर ( जिला देवरिया , उत्तर प्रदेश ) वाराणसी , वैशाली ( इसी नाम का नवस्थापित जिला,उत्तर बिहार ), चिरांद ( सारण जिला ) और राजगीर ( पटना से लगभग 100 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व ) आदि।
- सबसे पुराने सिक्के ईसा पूर्व पॉचवीं सदी के हैं , जो पंचमार्क या आहत सिक्के कहलाते है। आरम्भ में इनका प्रचलन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में हुआ।
- सिक्कों के प्रचलन से व्यापर व वाणिज्य का विस्तार हुआ अतः वैश्यों का महत्त्व बढ़ा।
- ब्राह्मण प्रधान समाज में वैश्यों का स्थान तृतीय कोटि में था। वे ऐसे किसी धर्म की खोज में थे, जहाँ उनकी स्थिति में सुधार हो सके।
- वणिकों ( जो सेट्ठी कहलाते थे ) ने गौतम बुद्ध और उनके शिष्यों को अत्यधिक मात्रा में दान दिए थे।
- इसका पहला कारण यह है कि जैन और बौद्ध धर्म की आरंभिक अवस्था में तत्कालीन वर्ण-व्यवस्था को कोई महत्व नहीं दिया गया।
- दूसरे, वे अहिंसा का उपदेश देते थे , जिससे विभिन्न राजाओं की मध्य होने वाले युद्धों का अंत हो सकता था तथा उसके फलस्वरूप व्यापर-वाणिज्य में उन्नति हो सकती थी।
- तीसरे, ब्राह्मण की कानून सम्बन्धी पुस्तकों में, जो धर्मसूत्र कहलाती थी, सूद पर धन लगाने के कारोबार को निंदनीय समझा जाता था तथा सूद पर जीने वाले को अधम कहा जाता था।
- बौद्ध और जैन दोनों संप्रदाय सरल, शुद्ध और संयमित जीवन के पक्षधर थे।
- बौद्ध और जैन दोनों धर्मों के भिक्षुओं को आदेश था कि वे जीवन में विलासता की वस्तुओं का उपभोग न करें।
जैन धर्म -
- जैन शब्द संस्कृत के जिन शब्द से बना है, जिसका अर्थ विजेता ( जितेन्द्रिय ) होता है। जैन महात्माओं को निर्ग्रन्थ ( बंधन रहित ) व जैन धर्म के अधिष्ठाता को तीर्थंकर कहा गया।
- जैन धर्म में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव या आदिनाथ थे। अरिष्टनेमि का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
- 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि को भी वासुदेव कृष्ण का भाई बताया गया है।
- जैन धर्मावलम्बियों विश्वास है कि उनके सबसे महान धर्मोपदेष्टा महावीर थे इसके पहले तेईस और आचार्य हुए हैं, जो तीर्थंकर कहलाते थे।
- धर्म के प्राचीन सिद्धांतों के उपदेष्टा तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ माने जाते हैं, जो वाराणसी के निवासी थे।
- जैन अनुश्रुतियों के अनुसार पार्श्वनाथ को 100 वर्ष की आयु में सम्मेद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुआ।
- पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित चार महाव्रत इस प्रकार हैं- सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह तथा अस्तेय।
जैन धर्म के तीर्थंकरों के नाम -
जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर है जो इस प्रकार है-
- ऋषभदेव
- अजितनाथ
- सम्भवनाथ
- अभिनन्दन
- सुमितनाथ
- पद्मप्रभु
- सुपार्श्वनाथ
- चन्द्रप्रभु
- प्रभु
- पुष्पदंत
- शीतलनाथ
- श्रेयांशनाथ
- वसुपूज्य
- विमलनाथ
- अनंतनाथ
- धर्मनाथ
- कुंथुनाथ
- अरनाथ
- मल्लिनाथ
- मुनिसुब्रतनाथ
- नेमिनाथ
- अतिष्ठनेमी
- पार्श्वनाथ
- महावीर
23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ -
जन्म- महावीर स्वामी के जन्म से 250 वर्ष पूर्व
पिता- अश्वसेन ( काशी के राजा )
माता- वामादेवी ( नरवर्मन की पुत्री )
पत्नी- प्रभावती ( कुशस्थल की राजकुमारी )
पार्श्वनाथ 23वें तीर्थंकर थे तथा ऐतिहासिक माने जाते है। जैन ग्रंथों में पार्श्वनाथ को पुरुषादनीयं कहा गया है। इनके अनुयायियों को निर्ग्रन्थ कहा जाता था।
- यथार्थ में जैन धर्म की स्थापना उनके आध्यात्मिक शिष्य वर्धमान महावीर ने की। महावीर का जन्म 540 ई. पू. में वैशाली के निकट कुण्डग्राम में हुआ था।
पिता- सिद्धार्थ ( वज्जि संघ के , कुण्डग्राम के ज्ञातृक क्षत्रिय कुल के प्रधान )
माता- त्रिशला ( लिच्छवी शासक चेतक की बहन )
बचपन का नाम- वर्द्धमान
पत्नी- यशोदा ( कुण्डीय गोत्र के राजा समरवती की कन्या )
पुत्री- प्रियदर्शनी
दामाद- जमालि ( प्रथम विरोधी ) (ज्ञान प्राप्ति के 14वें वर्ष )
द्वतीय विरोधी- तीसगुप्त ( ज्ञान प्राप्ति के 16वें वर्ष )
गृह त्याग- 30 की आयु में बड़े भाई नंदिवर्द्धन की आज्ञा से
शिष्य- मक्खलि पुत्र गोशाल ( आजीवक संप्रदाय के संस्थापक )
ज्ञान प्राप्ति- 12 वर्ष की तपश्या के पश्चात्।
ज्ञान प्राप्ति स्थल- जृम्भिक ग्राम में ऋजुपलिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे।
प्रथम शिष्य- जामालि ( दामाद )
प्रमुख उपदेश- राजगृह में वितुलाचल पहाड़ी पर वाराकर नदी के तट पर।
प्रमुख उपाधि- केवलिन ( कैवल्य-सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त व्यक्ति ), जिन ( विजेता ) , अर्हत ( पूज्य ), निर्ग्रन्थ ( बंधन रहित )
जीवन के अंत में निर्वाण - पावापुरी ( राजगृह ) बिहार में 72 वर्ष की आयु में 468 ई. पू. में हस्तिपाल के यहाँ ( मल्ल गणराज्य के प्रधान का शासित क्षेत्र )
जैन धर्म के सिद्धांत -
जैन धर्म के पांच व्रत -
- अहिंसा या हिंसा नहीं करना चाहिए
- सत्य या झूठ नहीं बोलना चाहिए
- अस्तेय या चोरी नहीं करना चाहिए
- अपरिग्रह या संपत्ति अर्जित नहीं करना
- ब्रह्मचर्य या इंद्रियों को वश में करना
इन पांच व्रतों में ऊपर के चार पार्श्वनाथ ने दिए थे जबकि पांचवा व्रत ब्रह्मचर्य महावीर ने जोड़ा।
- जैन धर्म में अहिंसा युअ किसी प्राणी को नहीं सताने के व्रत को सबसे अधिक महत्व दिया गया है।
- जैन धर्म दो सम्प्रदाओं में विभक्त होगया श्वेताम्बर अर्थात सफ़ेद वस्त्र धारण करने वाले और दिगंबर अर्थात नग्न रहने वाले।
- जैन धर्म में देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है , परन्तु उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है।
जैन साहित्य -
जैन साहित्य को आगम कहा जाता है। इसमें 12 अंग , 12 उपांग , 10 प्रकीर्ण , 6 छेद सूत्र , 4 मूल सूत्र , 1 नदी सूत्र एवं 1 अनुयोगद्वार है।
जैन धर्म में उल्लिखित ज्ञान -
- मति - इंद्रिय जनित ज्ञान
- श्रुति - श्रवण ज्ञान
- अवधि - दिव्य ज्ञान
- मनः पर्याय - अन्य व्यक्तियों के मन मस्तिष्क का ज्ञान
- कैवल्य - पूर्ण ज्ञान ( निर्ग्रन्थ एवं जितेन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान )
- जैन धर्म में मुख्यतः सांसारिक बंधनों से छुटकारा पाने के उपाय बताए गए हैं। इसमें छुटकारा या मोक्ष पाने के लिए सम्यक ज्ञान, सम्यक ध्यान , और सम्यक आचरण आवश्यक है। ये तीनों जैन धर्म के त्रिरत्न अर्थात तीन जौहर माने जाते हैं।
- जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित है, क्योंकि दोनों में जीवों के प्रति हिंसा होती है।
- जैन धर्म पुनर्जन्म व कर्मवाद में विश्वास करता है। उसके अनुसार कर्मफल ही जन्म और मृत्यु का कारण है।
- जैन धर्म संसार की वास्तविकता को स्वीकार करता है परन्तु सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं स्वीकारता है।
जैन धर्म का प्रसार -
- जैन धर्म के उपदेशों के प्रचार-प्रसार के लिए महावीर ने अपने अनुयायियों का संघ बनाया, जिसमे स्त्री और पुरुष दोनों को स्थान मिला। महवीर के अनुयायियों की संख्या 14000 बताई गई है।
2 प्रमुख जैन संगीतियाँ ( सम्मलेन )-
- प्रथम संगीति -पाटलिपुत्र ( बिहार ) में , वर्ष - 300 ई. पू. , अध्यक्ष- स्थूलभद्र , परिणाम- बिखरे व लुप्त ग्रंथों का संचयन व पुनःप्रणयन, 12 अंकों का प्रणयन किया। जैन धर्म का दो धाराओं में विभाजन-(1 ) दिगंबर-नग्न रहने वाले ( भद्रबाहु के नेतृत्व में ), (2 ) श्वेताम्बर-श्वेत वस्त्र धारण करने वाले ( स्थूलभद्र के नेतृत्व में )
- द्वितीय संगीति - वल्लभी ( गुजरात ) वर्ष- 512 ई. पू. अध्यक्ष- देवर्धि क्षमाश्रमण ( श्वेताम्बर आचार्य ) , परिणाम- बखरे ग्रंथों का संकलन तथा उनका क्रमानुसार प्रणयन करने के लिए।
- जैन धर्म ने अपने को ब्राह्मण धर्म से स्पष्टतः पृथक नहीं किया। जैन धर्म धीरे-धीरे दक्षिण और पश्चिम भारत में फैला जहाँ ब्राह्मण धर्म कमजोर था
- कर्नाटक में जैन धर्म का प्रचार सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ( 322-298 ई. पू. ) ने किया।
- जैन धर्म के मुख्य उपदेशों को संकलित करने के लिए पाटलिपुत्र ( आधुनिक पटना ) में एक परिषद् का आयोजन किया गया था।
- पाँचवीं सदी में कर्णाटक में अधिक सख्या में जैन मठ स्थापित हुए , जो बसदि कहलाते है।
- कलिंग या उड़ीसा में जैन धर्म का प्रचार ईसा पूर्व चौथी सदी में हुआ और ईसा पूर्व पहली सदी में इसे आंध्र और मगध के राजाओं को पराजित करने वाले कलिंग-नरेश खारवेल का संरक्षण मिला।
प्रमुख जैन तीर्थंकर एवं उनके प्रतीक -
- ऋषभदेव ( आदिनाथ ) ( प्रथम )--- सांड ( वृषभ )
- अजितनाथ ( द्वितीय )--------- हाथी
- शांतिनाथ ( सोलहवे ) ------- हिरण
- पार्श्वनाथ ( तेइसवे )---------साँप
- महावीर ( चौबीसवें )---------- सिंह
जैन धर्म का योगदान -
- जैन धर्म ने ही सबसे पहले वर्ण व्यवस्था और वैदिक कर्मकांड की बुराइयों को रोकने के लिए गंभीर प्रयास किए।
- जैनों ने मुख्यतः ब्राह्मणों द्वारा सम्पोषित संस्कृत भाषा का परित्याग किया और अपने धर्मोपदेश के लिए आम लोगों की बोलचाल की प्राकृत भाषा को अपनाया।
- उनके धार्मिक ग्रन्थ अर्द्धमागधी भाषा में लिखे गए हैं। ये ग्रन्थ ईसा की छठी सदी में गुजरात में वल्लभी नामक स्थान पर जो एक महान विद्या केंद्र था, अंतिम रूप से संकलित किए गए थे।
- जैनों ने प्राकृत को अपनाया, जिससे प्राकृत भाषा और साहित्य की समृद्धि हुई।
- भद्रबाहु ने कल्पसूत्र संस्कृत भाषा में लिखा। प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना प्रभाचन्द्र ने की। परिशिष्ट पर्व की रचना हेमचन्द्र सोरी ने की थी।
- भगवती सूत्र, महावीर के जीवन पर प्रकाश डालता है तथा इसमें 16 महाजपनदो का उल्लेख मिलता है। जैन भिक्षुओं के आचार नियमों का उल्लेख आचारंगसूत्र में उल्लिखित है।
- महावीर ने प्राकृत भाषा में जैन धर्म का प्रचार किया तथा जैन धर्म के प्रचार के लिए पावापुरी में एक जैन संघ की स्थापना की थी।
- जैनों ने अपभ्रंश भाषा में पहली बार कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे एवं इसका पहला व्याकरण तैयार किया।
- बौद्धों की तरह जैन लोग भी आरम्भ में पूर्तिपूजक नहीं थे। बाद में वे महावीर और अन्य तीर्थंकरों की मूर्ती या प्रतिमा की भी पूजा करने लगे।
बौद्ध धर्म भाग दो में--------
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