Directive Principles of State Policy/राज्य के नीति निर्देशक तत्व

 

 


राज्य के नीति निर्देशक तत्व/Directive Principles of State Policy


नीति निर्देशक तत्त्वों का अर्थ:-

·        राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व केन्द्र अथवा राज्यों की सरकारों के नाम जारी ऐसे निर्देश हैं, जो देश की शासन व्यवस्था के लिए मौलिक है।

·        डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के अनुसार- "राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का उद्देश्य जनता के कल्याण को प्रोत्साहित करने वाली सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है।"

·        डॉ. एम. वी. पायली -"ये प्रजातन्त्रात्मक भारत का शिलान्यास करते हैं। जब भारत सरकार इन्हें कार्यरूप में परिणत कर सकेगी तो भारत एक सच्चा लोक कल्याणकारी राज्य कहा जा सकेगा।"

·        डॉ. दुर्गा दास बसु के अनुसार, "अधिकांश निर्देशों का ध्येय भारत में आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करना है, जिसका संकल्प उद्देशिका में दिया गया है।"

·        देश के प्रशासकों के लिए ये एक आचार संहिता प्रदान करते हैं। जिसका पालन समय-समय पर इन्हें करना पड़ता है, क्योंकि ये तत्त्व उन उद्देश्यों को प्रतिपादित करते हैं, जो भारत के राज्य का आधार हैं।

·        राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व संविधान की प्रस्तावना में उद्धृत सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय तथा स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना पर आधारित हैं।

·        राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का उद्देश्य कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है।

·        ये नागरिकों के प्रति राज्य के सकारात्मक दायित्व हैं।

·        राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का वर्णन संविधान के भाग-4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक किया गया है।

नीति निर्देशक तत्त्वों के स्वरूपः-

·        नीति निर्देशक तत्त्वों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता; अर्थात् इन्हें वैधानिक शक्ति प्राप्त नहीं है।

·        निर्देशक तत्त्व शासन व्यवस्था में मूलभूत स्थान रखते हैं।

·        कानून निर्माण के दौरान इन तत्त्वों का प्रयोग करना राज्य का कर्त्तव्य होगा। यहां राज्य का अभिप्राय सभी राजनीतिक संस्थाओं, केंद्र सरकार, संसद और राज्य सरकार से है।

·        भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी इसके अधीन हैं।

संविधान में वर्णित नीति निर्देशक तत्त्व:-

ये निर्देशक तत्त्व अनुच्छेद 36 से अनुच्छेद 51 में वर्णित हैं-

अनुच्छेद 36: इसमें 'राज्य' का वही अर्थ बताया गया है जो मौलिक अधिकारों के लिए प्रयुक्त है अर्थात् 'राज्य' में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के अलावा स्थानीय प्राधिकारी भी सम्मिलित हैं।

अनुच्छेद 37: संविधान के भाग-4 में दिए गए उपबन्धों को किसी न्यायालय द्वारा बाध्यता नहीं दी जा सकेगी, तो भी इस भाग में दिए गए तत्त्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि निर्माण में इन तत्त्वों का प्रयोग करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।

अनुच्छेद 38(1):

·        इसमें निर्देशक तत्त्वों का सार समाहित है।

·        इसके अन्तर्गत लोक कल्याणकारी तथा समाजवादी राज्य की स्थापना के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया गया है।

·        "राज्य प्रभावी रूप से एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करेगा जिसमें समस्त व्यक्तियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय समान रूप से प्राप्त होगा और इस प्रकार राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा।"

·        44वें संविधान संशोधन (1978) द्वारा अनुच्छेद 38 में एक खंड जोड़ दिया गया, जिसमें कहा गया है कि राज्य विशिष्टतया आय की असमानताओं को कम करने और व्यक्तियों के बीच तथा विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के बीच प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा।

 

अनुच्छेद 39:

·        प्रत्येक नागरिक को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन सुलभ हों।

·        समाज के बीच समुदाय के भौतिक संसाधनों के स्वामित्व और नियंत्रण के विभाजन से समुदाय के सामूहिक हित की सर्वोतम रूप में प्राप्ति हो।

·        अर्थव्यवस्था के संचालन में पूंजी और उत्पादन के साधनों का किसी एक व्यक्ति या समूह के हाथ में संकेन्द्रन न होने पाए।

·        पुरुषों और स्त्रियों को समान कार्य के लिए समान वेतन उपलब्ध हो।

·        आर्थिक या सामाजिक आवश्यकताओं से विवश होकर किसी नागरिक को किसी ऐसे कार्य में न जाना पड़े, जो कि उसकी आयु एवं शक्ति के अनुकूल न हो।

·        बाल दासता एवं शोषण से बालकों की रक्षा हो सके।

अनुच्छेद 39 (क)

·        1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा यह अनुच्छेद स्थापित किया गया। इसके अनुसार 'निःशुल्क विधिक सहायता और सबके लिए 'समान न्याय' की प्राप्ति करवाना राज्य का कर्तव्य घोषित किया गया है।

·        42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा आर्थिक सुरक्षा संबंधी निर्देशक तत्त्व जोड़ा गया है. यथा राज्य इस बात का प्रयत्न करेगा कि कानूनी व्यवस्था का संचालन, समान अवसर तथा न्याय की प्राप्ति में सहायक हों और उचित व्यवस्थापन, योजना या अन्य किसी प्रकार से समाज के कमजोर वर्गों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था करेगा, जिससे आर्थिक रूप से कमजोर या असमर्थ व्यक्ति न्याय प्राप्त करने से वंचित न रहे।

 

अनुच्छेद 40

·        इसके अनुसार 'राज्य ग्राम पंचायतों के संगठन और उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में स्थापित करने का प्रयत्न करेगा।

अनुच्छेद 41

·        इसके अनुसार राज्य अपनी सामर्थ्य के अनुसार काम पाने, शिक्षा पाने, और वृद्धावस्था में पेंशन आदि पाने के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाएगा।

अनुच्छेद 42 :

·        इसके अनुसार 'राज्य काम की न्यायसंगत और मानवीय दशाओं के लिए' तथा 'महिलाओं को प्रसूति काल में विशेष सहायता के लिए' उपबन्ध करेगा।

अनुच्छेद 43 :

·        इसके अनुसार 'राज्य कोई अधिनियम या विधि बनाकर कर्मचारियों या कर्मकारों के लिए न्यूनतम मजदूरी निश्चित कर सकेगा।

अनुच्छेद 43 के कार्यन्वयन हेतु यू.पी.ए. सरकार ने फरवरी 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी अधिनियम, एक वैधानिक अधिकार लागू किया जिसके अंतर्गत रोजगार एवं न्यूनतम मजदूरी की वैधानिक गारंटी दी गई है।

अनुच्छेद 43 (क ):

·        42 वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 43 (क) स्थापित किया गया। इसके अनुसार, राज्य को यह निर्देश दिया गया है कि वह उद्योग एवं अन्य उपक्रमों में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करे (अर्थात् लाभ में भागीदारी)। यह आर्थिक न्याय की प्राप्ति में समाजवाद की ओर सशक्त कदम होगा।

अनुच्छेद 44:

·        इसके अनुसार, "राज्य भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में एक समान सिविल सहिता लागू करने का प्रयास करेगा।"

अनुच्छेद 45 :

·        राज्य को सभी बच्चों को तब तक के लिए शुरुआती देखभाल और शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए प्रयास करना होगा जब तक  कि बच्चा छह साल की आयु का नहीं हो जाता (86वें संविधान संशोधन द्वारा अन्तःस्थापित)।

अनुच्छेद 46 :

·        इसके अनुसार, "राज्य, समाज के कमजोर वर्गों विशेषतः अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की शैक्षिक एवं आर्थिक तथा सामाजिक सम्मान की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए उन्हें 'शोषण' से मुक्ति दिलवाएगा।"

अनुच्छेद 47:

·        इसके अनुसार, "राज्य व्यक्तियों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने का प्रबन्ध करेगा तथा मादक पेयों के उपभोग का प्रतिषेध करेगा।"

अनुच्छेद 48 :

·        इसके अनुसार, "राज्य का यह कर्त्तव्य होगा कि वह गायों, बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं के वध का प्रतिषेध करे।"

अनुच्छेद 48 (क):

·        42वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 48 (क) स्थापित किया गया। इसके अनुसार, "राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्द्धन का तथा वन एवं वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।"

अनुच्छेद 49:

इसके अनुसार, "राज्य राष्ट्रीय एवं ऐतिहासिक महत्त्व वाले स्मारकों और स्थानों की सुरक्षा करेगा।"

अनुच्छेद 50:

·        इसके अनुसार, "राज्य न्यायपालिका की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता के लिए न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण सुनिश्चित करेगा।"

अनुच्छेद 51:

अनुच्छेद 51 के अनुसार, राज्य:-

·        विश्व शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का,

·        राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण और सहयोगपूर्ण संबंधों को बनाए रखने का,

·        राष्ट्रों के मध्य अन्तर्राष्ट्रीय विधि और सोध-बाध्यताओं के प्रति आदर और सम्मान को बढ़ाने का

·        अंतर्राष्ट्रीय विवादों को 'मध्यस्थता' द्वारा निबटाने के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा।

संविधान के अन्य भागों में वर्णित नीति निर्देशक तत्त्व:-

अनुच्छेद 350 (क)

·        इसके अनुसार, प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर स्थानीय प्राधिकारी का यह कर्तव्य है कि वह भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करे।

अनुच्छेद 351

·        इसके अनुसार संघ का यह कर्तव्य है कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए और उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके।

अनुच्छेद 335

·        इसके अनुसार संघ या राज्य के कार्य-कलाप से : संबंधित सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावों के प्रशासन की दक्षता बनाए रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा।

नीति निर्देशक तत्वों की प्रकृति:-

·        स्त्री-पुरूष, बालको तथा विभिन्न समुदाय को लाभान्वित किया जा सके (अनु. 39)

·        निशुल्क विधिक सहायता (अनु. 39 क)

·        ग्राम पंचायतो का गठन (अनु. 40 )

·        नागरिको के लिये समान सिविल संहिता (अनु. 44 )

·        अनु. 46 के अनुसार राज्य जनता के दुर्बल वर्गों के. विशिष्ट तथा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितो की अभिवृद्धि करेगा।

·        कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण (अनु. 50)

·        अंतर्राष्ट्रीय शांति-सुरक्षा की अभिवृद्धि (अनु. 51 )

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों का महत्त्व:-

·        डॉ. पायली के अनुसार- "इन निर्देशक तत्त्वों का महत्त्व इस बात में है कि ये नागरिकों के प्रति राज्य के सकारात्मक दायित्व हैं।" संवैधानिक और व्यवहारिक दृष्टिकोण से ये तत्त्व अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, उदाहरणार्थ-

i.        लोक कल्याणकारी राज्य के लक्ष्य की पूर्ति के लिए इनका विशेष महत्त्व है।

ii.      पूर्ण रोजगार, सामाजिक सुरक्षा तथा आर्थिक न्याय के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ये तत्त्व अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

iii.    6-14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु महत्त्वपूर्ण हैं।

iv.   ग्रामीण क्षेत्रों के सामुदायिक विकास के लिए आवश्यक हैं।

v.     राजनीतिक ठहराव के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।

vi.   कार्यपालिका पर आवश्यक अंकुश लगाने के लिए आवश्यक हैं।

vii. ये तत्त्व ही शासन की सफलता तथा असफलता की जांच के मापदण्ड जनता को उपलब्ध करवाते हैं।

viii.मौलिक अधिकारों से संबंधित विवादों पर निर्णय देते समय ये नीति निर्देशक तत्त्व न्यायालय का मार्गदर्शन भी करते हैं।

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