Poat Mauryan Period/मौर्योत्तर काल
मौर्योत्तर काल/Poat
Mauryan Period
शुंग और कण्व वंश:
शुंग वंश ( 184 73 ई.पू.):-
· अंतिम
मौर्य शासक बृहद्रथ जनहित की रक्षा करने में असमर्थ रहा।
· साम्राज्य
के हित को दृष्टि में रख कर और विदेशियों (यवनों) के आक्रमणों से बचने के लिए मौर्य
सेनापति
'पुष्यमित्र' ने वृहद्रथ को मार डाला।
शुंगकालीन इतिहास की जानकारी
के स्त्रोत:
a.
पुराण
b.
बाण के
'हर्षचरित'
c.
पतंजलि के
'महाभाष्य'
d.
कालिदास के
'मालविकाग्निमित्रम्
e.
धनदेव के अभिलेख
f.
बौध ग्रंथ
'दिव्यावदान'
g.
14वीं शताब्दी के जैन लेखक मेरुतुंग की
'थेरावलि'
· शुंगों
की उत्पत्ति के संबंध में अनेक मत प्रचलित है किन्तु,
वर्तमान में शुंग को ब्राह्मण माना गया
है।
शुंगों की उत्पत्ति के संबंध
में तर्क
· हर्षचरित
— पुष्यमित्र
अनार्य था।
· पं.
हरप्रसाद शास्त्री— शुंग वंशी पारसीक थे तथा मित्र (सूर्य) के उपासक
थे।
· महर्षि
पाणिनी-
भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मण
· मालविकाग्निमित्र
– अग्निमित्र
'वैम्बिक कूल' का था।
· दिव्यावदान-
मौयों के वंशज
पुष्यमित्र (185-149 ई.पू.)
· गार्गी संहिता में वर्णित आक्रमणकारियों के नेता
'डेमेट्रियस' के साथ उसने प्रथम युद्ध लड़ा।
· कालिदास
के
'मालविकाग्निमित्रम्' में यवनों के साथ उसके दूसरे
युद्ध का उल्लेख है।
· डॉ.
आर.सी. मजूमदार के अनुसार पुष्यमित्र के पौत्र वसुमित्र ने यवन सेनापति मिनाण्डर को
पराजित किया।
· डॉ.
वी. ए. स्मिथ मिनाण्डर के आक्रमण को 155-53 ई.पू. बतलाते हैं।
· कालिदास
के
'मालविकाग्निमित्रम्' में विदर्भ के विरुद्ध विदिशा
के राज्य प्रतिनिधि ( पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र) के युद्ध का उल्लेख है।
· अग्निमित्र
ने वीरसेन को विदर्भ के विरुद्ध सेनापति नियुक्त किया।
· यज्ञसेन
(विदर्भ नरेश) की हार हुई।
· डॉ.
वी. ए. स्मिथ के अनुसार कलिंग नरेश खारवेल ने 'पुष्यमित्र'
के काल में दो बार (165 ई.पू. तथा 161 ई.पू.) आक्रमण किया तथा दोनों
बार पुष्यमित्र को पराजित किया।
· हाथीगुंफा
शिलालेख के अनुसार खारवेल ने बहसतिमित (बृहस्पतिमित्र) को हराया था. पुष्यमित्र को
नहीं।
· अयोध्या
के शिलालेख यह पता चलता हैं कि पुष्यमित्र ने दो अश्वमेघ यज्ञ
करवाये थे।
· 'मालविकाग्निमित्रम्' में वर्णित अश्वमेध यज्ञ उसने अपने
राज्य के अंतिम दिनों में किया था।
· 'महाभाष्य' के रचयिता पतंजलि उसके पुरोहित थे।
पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी:-
· पुष्यमित्र
के बाद अग्निमित्र शासक बना जो पहले विदिशा का उपराजा था।
· इस
वंश का चौथा शासक वसुमित्र था।
· इसके
शासन काल में शुंग सेना ने यवनों को पराजित किया था।
· इस
वंश का नया शासक भागवत ( भागभद्र था) इसी के शासन काल में यवन राजदूत हेलियोडोरस ने
भागवत धर्म ग्रहण कर विदिशा (बेसनगर) में गरुड़ स्तम्भ की स्थापना की। इ
· स
प्रकार 112 वर्ष शासन करने के पश्चात् शुंग वंश का अंत हो गया।
कलिंग नरेश खारवेल:
· खारवेल
चेदि वंश का था जिसका संस्थापक महामेघवाहन नामक व्यक्ति था।
· खारवेल
ने भुवनेश्वर के पास उदयगिरि की पहाड़ी में हाथीगुम्फा अभिलेख खुदवाया।
· महाराज
उपाधि का प्राचीनतम उल्लेख हाथीगुम्फा अभिलेख से प्राप्त होता है।
· खारवेल
का 28 ई. पूर्व में राज्याभिषेक हुआ तथा उसने कलिंगाधिपति तथा कलिंग चक्रवर्ती की उपाधि
धारण की।
· अपने
शासन के 5वें वर्ष उसने मगध शासक नंदराज द्वारा खुदवाई गई नहर का विस्तार तनुसुलि से
कलिंग तक किया। नंदों का उल्लेख करने वाला यह प्रथम अभिलेख है।
· 12वें
वर्ष उसने पाटलिपुत्र पर हमला कर मगध शासक वृहस्पतिमित्र को पराजित किया तथा वहां से
जैन तीर्थकर शीतलनाथ की मूर्ति को वापस लाया।
· खारवेल
जैन धर्मावलंबी था।
कण्व वंश (75-30 ई.पू.):-
· अंतिम
शुंग शासक देवभूति की एक दासी पुत्री से हत्या करवा कर वासुदेव ने कण्व वंश की स्थापना
की।
· पुराणों
के अनुसार कण्वों ने 45 वर्ष तक शासन किया।
· कण्व
शासकों के विषय में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है। कुछ मुद्राएं प्राप्त हुई हैं जिन
पर
'भूमिमित्र' खुदा है। प्रतीत होता है कि ये मुद्राएं
कण्व शासक 'भूमिमित्र' के काल की हैं,
किन्तु मुद्रा शास्त्री इस मत से सहमत नहीं हैं।
· कुछ ने सुशर्मा को कण्व वंश का अंतिम सम्राट् तथा
परिव्राजक वंश का संस्थापक माना है, परंतु यह
विचार मान्य नहीं है।
· कण्व
काल में मगध की सीमा बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रह गई थी।
· पुराणों
के अनुसार कण्वों का अंत आन्ध्रों ने किया संभवतः कण्व ब्राह्मण थे।
सातवाहन या आन्ध्र वंश
· पुराणों
में सातवाहन वंश की स्थापना का श्रेय सिमुक (सिन्धुक,
सिसुक. शिप्रक) को दिया गया है।
· शातकर्णी
प्रथमः इसने दक्षिणाधिपति तथा अप्रतिहतचक्र की उपाधि ली।
· इसने
विदर्भ को शुंग शासक से छीना।
· इसके
समय खारवेल के राज्य पर आक्रमण हुआ।
· इसने
दो अश्वमेध तथा राजसूय यज्ञ किए।
· शातकर्णी
के पश्चात तथा गौतमीपुत्र के पूर्व 9 राजा हुए,
जिसमें हाल नामक राजा ज्यादा प्रसिद्ध था।
गौतमीपुत्र शातकर्णी (
106-130 ई.):
· पुराणों
के अनुसार आंध्र वंश का यह 23वा शासक था।
· पिता
का नाम शिवस्वाति तथा माता का नाम गौतमीवलश्री था।
· इसने
शक शासक नहपान को पराजित किया।
· इसने
नासिक जिले में वेणाकटक नामक नगर बसाया।
· इसने
राजाधिराज महाराज, स्वामी, वर वरण, विक्रमचारू, विक्रम आदि
उपाधियां ली।
यज्ञ श्रीशातकर्णी (173-203 ई.):-
· इसके
सिक्के पर नाव का चित्रण है।
· तीसरी
सदी तक इस वंश का पतन हो गया।
· एच.सी.
राय चौधारी के अनुसार सातवाहन वंश के 19 शासकों ने 300 वर्षों तक शासन किया।
· सातवहनों
की राजकीय भाषा प्राकृत थी।
भारत में इण्डो-ग्रीक राज्य:
· मौर्य
शासन के पश्चात भारत पर पुनः यवनों ने आक्रमण किया।
· इस
काल में पहला महत्वपूर्ण आक्रमणकारी यूथीडेमस का पुत्र डेमेट्रियस प्रथम था जिसने अपने
दो सेनापतियों अपोलोडस तथा मिणान्डर की सहायता से आक्रमण कर सिंधु नदी को पार कर दिया।
· डेमेट्रियस
ने अपनी राजधानी सियालकोट (साकल) बनाई।
· इसने
भारतीय राजाओं के समान उपाधि धारण की धार्महीत, अजेय,
रेक्स इण्डोरम इत्यादि।
· इसने
खरोष्टि लिपि युक्त अपने सिक्के भी चलाए।
· यवन
दो शाखाओं में बंट गए- a यूथीडेमस वंश (राजधानी—शाकल/स्यालकोट). b
यूक्रेटाइड वंश (राजधानी— तक्षशिला ) ।
मिनाण्डर:
· यह यूथीडेमस वंश का जो एपोलोडोडस के पश्चात स्यालकोट की गद्दी पर बैठा।
· मिलिन्दपन्हों
में इसी शासक ने भिक्षु नागसेन के साथ दार्शनिक संलाप किया है।
· इलाहाबाद
के रेह
नामक स्थान से इसका अभिलेख प्राप्त हुआ है।
· प्लूटार्क
इसकी न्यायप्रियता की प्रशंसा करता है।
· इसका
उत्तराधिकारी स्ट्रैटो प्रथम था।
यूक्रेटाइड वंशः
· इस वंश का संस्थापक
यूक्रेटाइड था।
· इसने
तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाई इसी के वंश के शासक एण्टियाल कीडास के राजदूत ( शुंग
शासक भागभद्र के काल में) हेलियोडोरस ने विदिशा में गरूड़ स्तंभ की स्थापना की थी।
· इस
वंश का अंतिम शासक हर्मियस था।
भारत आये विदेशी आक्रमणकारियों
के वंशों का भारतीय संस्कृत साहित्य में नाम:
भारत में शकों और पहलवों का राज्य:
· संस्कृत
साहित्य में विदेशी या बर्बर जातियों को सामूहिक रूप से शक- यवन पहलव कहा गया है।
· 'पर्सिपोलिस' तथा 'नक्शीरुस्तम'
अभिलेख से ज्ञात होता है कि शक डेरियस के विजित प्रदेशों में रहते थे।
· शकों
ने लगभग 165 ई.पू. भारत के उत्तर पश्चिम में प्रवेश किया।
· पतंजलि
कृत
'महाभाष्य' से ज्ञात होता है कि पुस्तक की रचना
के समय शक लोग यवनों के साथ आर्यावर्त की सीमाओं से बाहर थे
।
· शकों
की पांच शाखाएं थीं। एक शाखा अफगानिस्तान में बस गयीl
· दूसरी शाखा पंजाब में बसी,
जिसकी राजधानी तक्षशिला थी।
· तीसरी
शाखा ने मथुरा में लगभग दो सदियों तक शासन किया।
· चौथी
शाखा में पश्चिमी भारत में ईसा की चौथी सदी के आरम्भ तक शासन किया।
· पांचवीं
शाखा ने ऊपरी दक्कन पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
शक क्षत्रपीय वंश
· शक
शासकों के भारतीय गवर्नरों को 'क्षत्रप' कहा जाता है। ईरानी शब्द 'क्षत्रपवन' से लिया गया था. जिसका अर्थ है 'प्रांतीय गवर्नर'।
· भारत
के विभिन्न भागों में कई क्षेत्रीय वंश थे, किन्तु हम
इनको मुख्यतः दो भागों में बांट सकते हैं: (1) तक्षशिला
और मथुरा के उत्तरी क्षत्रप, (2) महाराष्ट्र तथा उज्जैन
के पश्चिमी क्षत्रप
1. (i) तक्षशिला
के उत्तरी क्षत्रप:
· तक्षशिला
के प्रथम शक शासक के रूप में मग्ग या मोयेज या माओज (Maues) (80 ई.पू.)
का उल्लेख मिलता है।
· प्राप्त
सिक्कों के आधार पर उसके साम्राज्य का विस्तार पुष्कलावती,
कपिशा एवं पूर्वी मथुरा तक सिद्ध होता है।
· माओज
के बाद एजेज शासक बना इसने 'यूथिडेमस वंश के स्वतंत्र राज्य
को समाप्त किया।
· एजेज
ने कुछ सिक्के एजिलिसिज (Azilises) के साथ भी चलाये।
· 'एजिलिसिज' एजेज का पुत्र था। उसने अपने पिता के साथ संयुक्त
रूप से राज्य किया व एजेज की मृत्यु के पश्चात् वह (एजिलिसिज) एकमात्र राजा बना।
· कुछ
विद्वानों का मत है कि एज़ेज और एजिलिसिज एजेज को 58 ई.पू. से आरम्भ होने वाले विक्रम
संवत् का संस्थापक माना जाता है। किन्तु यह भी कहा जाता है कि उज्जैन के शासक ने
58 ई.पू. शकों को पराजित किया।
· वह अपने को विक्रमादित्य कहता था। उसी के नाम से
विक्रम संवत् चला।
(ii) मथुरा के उत्तरी
क्षत्रपः
· जैन
ग्रंथ
'कालकाचार्य कथानक' के आधार पर यह अवधारणा प्रचलित
है कि मालवा में विक्रमादित्य (57 ईसा पूर्व) द्वारा पराजित होने पर शक मथुरा में आकर
बस गये।
· इसी
शासक को मालव तथा विक्रम संवत का स्थापक होने का श्रेय दिया जाता है।
· जैन
ग्रंथों के अनुसार इसके 135 वर्ष बाद शक संवत् प्रारंभ (78 ई.) हुआ।
· मथुरा
सिंहशीर्ष अभिलेख से पता चलता - है कि राजूल या राजवुल मथुरा का प्रथम शासक था।
· राजबुल
के बाद उसका पुत्र शोडास राजा हुआ एवं उसके बाद तोरणदास ने गद्दी संभाली।
· इसके
पश्चात् कुषाणों ने मथुरा से शकों की सत्ता को समाप्त कर दिया एवं शक क्षत्रप कुषाण
नरेशों की अधीनता में शासन करने लगे।
2. महाराष्ट्र के पश्चिमी
क्षत्रपः
· शक
जाति के
'क्षहरात' वंश का 'भूमक'
पश्चिमी भारत का प्रथम क्षत्रप प्रतीत होता है।
· 'भूमक' के असंख्य सिक्कों के आधार पर प्रो. रैप्सन ने
निष्कर्ष निकाला कि 'भूमक' ने 'नहपान' से पहले राज्य किया तथा नहपान उसका तत्कालिक उत्तराधिकारी
था।
· महाराष्ट्र
में नहपान के राज्य की सबसे पहली तिथि 119 ई. तथा अंतिम तिथि 46 ई. है।
· इसका
राज्य 124 ई. के लगभग समाप्त हुआ।
उज्जैन के पश्चिमी क्षत्रपः
· यह
वंश कार्दमक (चष्टन) वंश कहलाता है।
· क्षहरातों
के पश्चात् सुराष्ट्र तथा मालवा में शासन करने वाला यह शकों का दूसरा कुल था।
· इस
वंश का सर्वप्रथम शासक यशोमतिक था। उसका पुत्र 'चष्टन'
था।
· एक
अभिलेख से ज्ञात होता है कि 130 ई. में चष्टन ने अपने पौत्र
'रुद्रदामन' के साथ मिलकर राज्य किया।
· रुद्रदामन
पिता
'जयदमन' की संभवत: 130 ई. से पहले मृत्यु हो गयी
थी।
· उज्जैन
के शक क्षत्रपों में रुद्रदामन सर्वप्रसिद्ध था।
· उसके
'जूनागढ़ अभिलेख' से तत्कालिक महत्त्वपूर्ण जानकारी
प्राप्त होती है।
· उसने
'महाक्षत्रप' की उपाधि धारण की।
कुषाण साम्राज्य का उदय:
· मौर्य
साम्राज्य के पश्चात् भारत में कुषाण साम्राज्य ही ऐसा पहला साम्राज्य था,
जिसका प्रभाव मध्य एशिया, ईरान, अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान तक था।
· कुषाणों
के विषय में हमें महत्त्वपूर्ण जानकारी चीनी स्रोतों से मिलती है। इनमें
'हान वंश का इतिहास' (History of Han Dynasty) प्रमुख
है।
· कुषाण
कालीन अनेक सिक्के तथा कुछ अभिलेख भी उनके विषय में जानकारी देते हैं।
· बैक्ट्रिया
में चीनी राजदूत चांग-कीन ने यू-ची जाति के दक्षिण-पश्चिमी की ओर प्रवास का विवरण लिखा
है।
· नागार्जुन-कृत
'माध्यमिक सूत्र' तथा अश्वघोष कृतः 'बुद्धचरित' से भी कुषाण कालीन व कनिष्क से संबंधित महत्त्वपूर्ण
जानकारी मिलती है।
कुषाण वंश का उदय:
· कुषाण
यू-ची जाति की एक शाखा थे।
· चीनी
इतिहासकारों के अनुसार जब आधुनिक चीन के सीमांत प्रदेशों में स्थित खानाबदोश यू-ची
जाति को 165 ई. पू. के लगभग 'हिंग-नू' नामक बर्बर जाति ने पश्चिम की ओर खदेड़ दिया तो आगे बढ़कर यू-ची ने
'इल' तथा इसकी सहायक नदियों के किनारों पर स्थित
वू-सुन (Wu-Sun) जाति को पराजित किया।
· यहां
यू-ची दो भागों में बंट गये। जो भाग तिब्बत की सीमा पर रहने लगा वह लघु यू-ची तथा जो
भाग पश्चिम की ओर चलता रहा वह 'महान् यू-ची' कहलाया।
· आगे
चल कर इन्हें शकों का सामना करना पड़ा। शक पराजित होकर भारत की ओर बढ़ गये और यू-ची
15 वर्षों तक इन प्रदेशों में शांतिपूर्वक रहे।
· यहां
वू-सुन के राजा (जिसे यू-ची ने परास्त करके मार डाला था) के पुत्र ने उन्हें हांग-नू
की सहायता से पराजित करके यहां से भी खदेड़ दिया।
· वे
लगभग 10 ई. पू. ऑक्सस घाटी में स्थाई रूप से रहने लगे।
· यू-बी
पांच भागों में बंट गये थे: ह्यू-मी, चोंग-मो,
कुई-शांग, ही धुम और काओ-फू) अंत में इनमें कुई-
शांग (कुषाण) शाखा ने सर्वाधिक शक्ति व प्रमुखता प्राप्त की।
कैडफिसिज प्रथम (15 ई. से 65
ई.)
· कैडफिसिज
प्रथम या कुजुल कैडफिसिज के प्राप्त पूर्वतम सिक्कों पर यूनानी शासक हर्मियस का नाम
भी मिलता है।
· कालान्तर
में यह स्वतंत्र शासक बन गया तथा उसका राज्य ईरान की सीमा से सिन्धु या झेलम नदी तक
फैला हुआ था।
· इसके
साम्राज्य के अंतर्गत संपूर्ण अफगानिस्तान तथा गंधार के प्रदेश सम्मिलित थे।
· उसने
सिक्को पर 'युवांग' (प्रमुख)
'महाराज', 'राजाधिराज' और 'सत्यधर्म' का अनुयायी'
आदि उपाधियां प्रयुक्त की l
कैडफिसिज विम (65 ई. से 75 ई.)
· कुजुल कैडफिसिज के पश्चात् उसका पुत्र विम कैडफिसिज
या कैडफिसिज द्वितीय राजा बना।
· इसने
सोने तथा तांबे के सिक्के चलाये।
· इसके
सिक्कों पर शिव, नन्दी तथा त्रिशूल की आकृति से अनुमान लगाया
गया है कि वह हिन्दू धर्म तथा शिव का अनुयायी था।
· उसके
सिक्कों पर 'महाराज', 'राजाधिराज',
'सर्वलोकेश्वर', 'महोश्वर' आदि उपाधियां दी गयी है।
· कैडफिसिज
प्रथम और द्वितीय की विजयों से चीन, रोमन साम्राज्य
और भारत के मध्य व्यापार के मार्ग खुल गये।
· डॉ.
बी.ए. स्मिथ का मत है कि विम कैडफिसिज के राज्य में अफगानिस्तान,
तुर्किस्तान, बुखारा और रूसी तुर्किस्तान का क्षेत्र
भी शामिल था।
कनिष्कः
· कैडफिसिज
शासकों के पश्चात् कनिष्क ने शासन की बागडोर संभाली।
· कनिष्क
के शासनकाल के विषय में व उसके राज्यारोहण के विषय में विभिन्न विद्वानों के मत भिन्न-भिन्न
हैं। सर्वाधिक मान्य तिथि शक संवत् 78 ई. है।
· सभी
कुषाण शासकों में से कनिष्क सबसे योग्य और महान् था।
· डॉ.
स्मिथ के अनुसार उसने अपने राज्य के आरम्भिक वर्षों में कश्मीर पर विजय प्राप्त की।
कनिष्क ने वहां बहुत बड़ी संख्या में स्मारक बनाए तथा
'कनिष्कपुर नगर (संभवतः वर्तमान कनीस्पोर ग्राम) की
स्थापना की।
· बौद्ध
परम्परा तथा 'श्री धर्मपिटक निदान सूत्र' के चीनी अनुवाद से ज्ञात होता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र (हो आन्यू) के शासक
को पराजित करके हर्जाने के रूप में प्रसिद्ध विद्वान अश्वघोष, बुद्ध का भिक्षापात्र तथा एक अनोखा कुक्कुट
भी प्राप्त किया।
· पुरुषपुर
(पेशावर) उसके साम्राज्य की राजधानी थी।
· कनिष्क
के साम्राज्य की दूसरी राजधानी मथुरा' थी
नाग एवं वाकाटक वंश
नाग वंश
· नागवंशों
का उदय मध्यभारत तथा उत्तर प्रदेश के भूभागों पर हुआ था।
· पुराण
के अनुसार पद्मावती, मथुरा तथा कान्तिपुर में नाग
कुलों का शासन था ।
· इनमें
पद्मावती और मथुरा के नागवंश ने गुप्तों के पूर्व प्रमुखता पायी।
· मथुरा
में सात और पद्मावती में नौ नाग कुलों ने शासन किया था।
· पद्मावती
के नाग लोग भारशिव' कहलाते थे, क्योंकि वे अपने कंधों पर शिवलिंग वहन करते थे।
· चौथी
शताब्दी ई. के मध्य में समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के बहुत-से राजाओं का उन्मूलन करने
का दावा किया उनमें दो नागवंशी थे-मथुरा का नागवंशी गणपति नाग और द्वितीय पद्मावती
का भारशिव शासक नागसेन ।
· गुप्त
शासकों के दलित नागवंशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध थे।
· चंद्रगुप्त
द्वितीय का विवाह 'कुबेरनाग' से हुआ। उन्होंने सर्वनाग नामक एक नाग सरदार को विषयपति या प्रांतीय गवर्नर
नियुक्त किया था।
वाकाटक शासक
· प्रो.
डयूल के अनुसार वाकाटक वंश तीसरी से छठी शताब्दी तक दक्षिण में राज्य करने वाले सभी
वंशों में श्रेष्ठ थे
· वाकाटक,
विष्णुवृद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे।
· इनके
पूर्वज सातवाहनों के अधीन बरार के स्थानीय शासक थे।
· प्रो.
मिराशी के अनुसार वाकाटक दक्षिण के ही रहने वाले थे।
· पल्लव
और कदम्ब आदि शासकों की भाँति उन्होंने भी 'धर्ममहाराज'
की उपाधि धारण की।
· इस
वंश के अनेक प्रतापी शासक हुए, जिन्होंने तीसरी से छठी
शताब्दी (लगभग 255 ई.-510 ई.) तक दक्षिण और मध्य भारत के अनेक भागों पर राज्य किया।
विन्ध्यशक्ति (255 ई.-275 ई.):
· वाकाटक
वंश का संस्थापक विन्ध्यशक्ति था, जिसे शिलालेखों में
'वाकाटक वंशकेतु' कहा गया है।
· इसने
सातवाहन शासकों की कमजोरी का लाभ उठा कर एक स्वतंत्र राजवंश स्थापित करने का प्रयास
किया। दान और युद्ध दोनों में वह असाधारण था।
प्रवरसेन प्रथम (275 ई. -335
ई.):
· प्रवरसेन
को उसके महत्त्वपूर्ण कार्यों के कारण वाकाटक वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है।
· इसे
सातो यज्ञ-अग्निष्टोम अप्तोर्यम, वाजपेय, ज्योतिष्टोम बृहस्पतिशव. शड्यस्क तथा अश्वमेध यज्ञ करने का श्रेय प्राप्त है।
· इसने
चार अश्वमेघ यज्ञ किये तथा 'सम्राट्' की उपाधि भी धारण की।
· सम्राट
की उपाधि धारण करने वाला वह एकमात्र वाकाटक शासक था।
· इसने
अपना राज्य नर्मदा तक बढ़ाया और पुंडरीक को राजधानी बनाया।
· इसने
अपने पुत्र गौतमीपुत्र का विवाह नागवंश के भवनाग की पुत्री से करके अपनी स्थिति में
काफी सुधार कर लिया।
· प्रवरसेन
के चार पुत्र थे। पुराणों के अनुसार उसके पश्चात् वे सभी राजा बने।
रुद्रसेन प्रथम (335 ई.-360 ई.):
· गौतमीपुत्र
(प्रवरसेन का ज्येष्ठ पुत्र) की अपने पिता के शासन काल में ही मृत्यु हो गई थी।
· प्रवरसेन
प्रथम के बाद उसका पौत्र रुद्रसेन प्रथम राजा बना।
· इलाहाबाद
प्रशस्ति में वर्णित रुद्रदेव वह ही है।
· इसने
समुद्रगुप्त के विरुद्ध आठ अन्य राजाओं के साथ एक संगठन का नेतृत्व किया तथा पराजित
होने पर उसे मध्य प्रदेश के प्रदेशों से हाथ धोना पड़ा और इस प्रकार वाकाटक राज्य थोड़े
काल के लिए दक्षिण तक ही सीमित रह गया।
रुद्रसेन द्वितीय (385 ई.-410
ई.):
· रुद्रसेन
द्वितीय ने चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त से विवाह किया व सम्मान और
गौरव प्राप्त किया। रुद्रसेन द्वितीय के बाद उसका नाबालिग पुत्र दिवाकरसेन राजा बना।
इस काल में प्रभावती गुप्त ने बड़ी कुशलता से राज-काज चलाया।
प्रवरसेन द्वितीय (410 ई.
440 ई.):
· दिवाकरसेन
के पश्चात उसके भाई दामोदरसेन में राजा बनकर 'प्रवरसेन
द्वितीय' की उपाधि धारण की। उसने 'प्रवरपुर'
नामक नई राजधानी बनाई।
नरेन्द्रसेन (440 ई.-460 ई.):
· उसने
संभवत: उत्तर और पूर्व में कुछ प्रदेशों को विजित किया।
पृथ्वीसेन द्वितीय (460 ई.
480 ई.);
· एक अभिलेख में पृथ्वीसेन द्वितीय को "वंश के
खोये हुए भाग्य को बनाने वाला" कहा गया है।
· उसने
पद्मपुर को राजधानी बनाया। उसे बस्तर के नल वंश तथा अपने वाकाटक शासकों से भी संघर्ष
करना पड़ा।
· मल
शासकों के विरुद्ध उसने सफलता प्राप्त की. लेकिन वत्सगुल्म शाखा के हरिसेन नामक शासक
से 480 ई. में पराजित हुआ।
· इस
प्रकार वाकाटकों की मुख्य शाखा का 480 ई. में अंत हुआ।
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