State Executive in hindi/राज्य की कार्यपालिका
राज्य की कार्यपालिका/State Executive
राज्यपाल
·
राज्यपाल,
राज्य की कार्यपालिका का प्रमुख होता है। राज्य की समस्त कार्यकारिणी
शक्तियाँ उसमे निहित होती है। जिनका प्रयोग वह स्वयं अथवा अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों
द्वारा करवाता है।
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राज्यपाल राज्य की कार्यपालिका का प्रमुख होने
के नाते दो भूमिकाएं अदा करता है-एक तो राज्य के प्रमुख के रूप में दूसरा केन्द्र
सरकार के प्रतिनिधि के रूम में।
·
प्रत्येक राज्य का एक राज्यपाल
होता है।
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1956 में किए गये 7वें संशोधन
के अनुसार एक व्यक्ति दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया
जा सकता है।
·
1972 में उत्तर-पूर्व क्षेत्र
पुर्नगठन अधिनियम के अनुसार उत्तर-पूर्व क्षेत्र के पाँच राज्यों असम,
मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय
के लिये एक ही राज्यपाल नियुक्त किया गया।
राज्यपाल पद के लिए योग्यता:-
·
अनुच्छेद 157 और 158 के अनुसार
राज्यपाल के लिए नियुक्त व्यक्ति में निम्न योग्यताएँ होनी
आवश्यक हैं:
a.
वह भारत का नागरिक हो।
b.
वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर
चुका हो।
c.
वह राष्ट्रपति पद के लिए अयोग्य
माने जाने वाले किसी सरकारी लाभ के पद पर आसीन न हो।
d.
वह संसद या किसी राज्य विधानमंडल
का सदस्य न हो।
राज्यपाल का कार्यकाल तथा वेतन:-
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राज्यपाल अपना पद ग्रहण करने
से पूर्व राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के सम्मुख शपथ ग्रहण करता है।
·
राज्यपाल की पदावधि 5 वर्ष
होती है। वह राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त अपना पद धारण करेगा।
·
राज्यपाल राष्ट्रपति को संबोधित
कर लिखित पत्र द्वारा किसी भी समय अपना पद त्याग देगा।
·
राज्यपाल को पुनः राज्यपाल
पद के लिये नियुक्त किया जा सकेगा।
·
राज्यपाल के यदि राज्यपाल
अपनी पदावधि पूरी कर लेता है तो वह नए राज्यपाल के रूप में पद धारण करता है।
·
राज्यपाल की मृत्यु हो जाने
की स्थिति में प्रायः पड़ोसी राज्य के राज्यपाल को प्रभावित राज्य के राज्यपाल का अतिरिक्त
कार्यभार दे दिया जाता है।
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राज्यपाल को वेतन मिलता है।
इसके अतिरिक्त उसे निशुल्क सरकारी निवास, चिकित्सा
सुविधायें तथा अन्य भत्ते मिलते हैं।
·
यदि वह दो
या दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल है तो उसका वेतन राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित किया
जायेगा ।
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राज्यपाल का वेतन तथा भत्ते
राज्य की संचित निधि पर भारित है ।
राज्यपाल को प्राप्त विशेषाधिकार:-
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राज्यपाल की पदावधि के दौरान
उसके विरुद्ध किसी भी न्यायालय में किसी भी प्रकार की आपराधिक कार्यवाही नहीं प्रारम्भ
की जा सकती।
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जब वह पदासीन हो तो उसकी गिरफ्तारी
या कारावास के लिए किसी भी न्यायालय से कोई आदेशिका जारी नहीं की जा सकती।
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राज्यपाल का पद ग्रहण करने
से पहले या बाद में उसके द्वारा व्यक्तिगत क्षमता में किए गए कार्य के संबंध में कोई
दाण्डिक कार्यवाही करने से पूर्व उसे दो माह की पूर्व सूचना देना अनिवार्य है।
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राज्यपाल अपने पद की शक्तियों
के प्रयोग तथा कर्त्तव्यों के पालन के लिए किसी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं है।
राज्यपाल की शक्तियाँ:-
कार्यकारी शक्ति:-
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राज्यपाल राज्य के प्रमुख
अधिकारियों जैसे मुख्यमंत्री, मंत्री, महाअधिवक्ता राज्य लोक सेवा आयोग का सभापति इत्यादि की नियुक्ति करता है।
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राज्यपाल को विधान मंडल में
उन सदस्यों के मनोनयन की शक्ति प्राप्त है, जिन्होने
साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आन्दोलन और सामाजिक सेवा के कार्यों में विशेष योगदान दिया है।
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राज्यपाल राष्ट्रपति को यह
सिफारिश करता है कि राज्य का प्रशासन संविधान के अनुसार नहीं चल रहा तथा राज्य के राष्ट्रपति
शासन लगा दिया जाए।
विधायी शक्तियाँ:-
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राज्यपाल को राज्य के विधानमंडल
को संबोधित करने तथा विधानमंडल की पहली बैठक में एक या दोनों सदनों को किसी विधेयक
के संबंध में संदेश भेजने का अधिकार है।
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वह राज्य विधान मंडल द्वारा
पारित विधेयकों को स्वीकृति प्रदान करता है।
·
जब विधानसभा का अधिवेशन न
हो रहा हो तो राज्यपाल अध्यादेशों के माध्यम से कानून बना सकता है।
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वह राज्य विधानमंडल द्वारा
पारित कुछ श्रेणियों के विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये सुरक्षित रख सकता
है।
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वह राज्य की विधायिका के दोनों
सदनों में से किसी भी सदन का अधिवेशन बुलाकर अथवा स्थगित कर सकता है और विधानसभा भंग
कर सकता है।
वित्तीय शक्तियाँ:-
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अनुच्छेद 202 के अनुसार राज्यपाल,
राज्य विधानमंडल के समक्ष राज्य के वार्षिक वित्तीय विवरण अर्थात् बजट
को प्रस्तुत करवाता है।
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अनुच्छेद 207 के अनुसार धन
विधेयक और अनुदानों की मांगों को विधानमंडल में प्रस्तुत करने की सिफारिश करता है।
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राज्य की आकस्मिक निधि पर
भी राज्यपाल का नियंत्रण रहता है। राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह आवश्यकता पड़ने पर
विधानमंडल की मंजूरी के बिना भी आकस्मिक निधि से धन निकाल सके।
न्यायिक शक्तियाँ:-
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अनुच्छेद 161 के अनुसार राज्य
की कार्यपालिका शक्ति के भीतर किसी अपराध से संबंधित दंड को राज्यपाल क्षमा (मृत्युदंड
को छोड़कर), उसका प्रविलंबन, विराम
या परिहार कर सकता है। मृत्यु दंड को क्षमा करने का अनन्य अधिकार राष्ट्रपति के पास
है।
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राज्यपाल राज्य के न्यायाधीशों
और अन्य न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति, पद्दोन्नति
आदि के मामलों में भी निर्णय लेता है।
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राज्यपाल की पदावधि के दौरान
उस पर कोई फौजदारी मुकद्दमा या महाभियोग नहीं चलाया जा सकता।
आपात् शक्तियाँ:-
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राज्यपाल को युद्ध,
बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रपति के समान अनुच्छेद
352 के तहत् किसी प्रकार की कोई घोषणा करने का अधिकार नहीं है।
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अनुच्छेद 356 के तहत् राष्ट्रपति
को अपना यह प्रतिवेदन भेज सकता है कि राज्य सरकार का शासन संविधान के उपबंधों के अनुसार
नहीं चलाया जा सकता, अतः राज्य में राष्ट्रपति शासन
लागू कर दिया जाए। ऐसी स्थिति में राज्यपाल राष्ट्रपति के अभिकर्ता के रूप में कार्य
करता है।
राज्यपाल के विवेकाधिकार:-
·
यदि राज्यपाल को यह विश्वास
हो जाये कि मंत्रिपरिषद का विधान सभा में बहुमत नहीं है या मंत्रिपरिषद के विरुद्ध
विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया या मंत्रिपरिषद संविधान के प्रावधानों
के अनुरूप कार्य न कर रही हो तो वह मंत्रिपरिषद भंग कर सकता है।
·
यदि विधान सभा में किसी दल
का स्पष्ट बहुमत नहीं है तो राज्यपाल किसी भी व्यक्ति को मुख्यमंत्री नियुक्त करने
में अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है।
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राज्यपाल,
मुख्यमंत्री से किसी भी विधायी अथवा प्रशासनिक मामले पर सूचना मांग सकता
है।
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राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह
पर विधान सभा का अधिवेशन बुलाता है, लेकिन यदि
असाधारण स्थिति उत्पन्न हो जाये तो वह विधान सभा का विशेष अधिवेशन भी बुला सकता है।
·
वह राज्य विधानमंडल द्वारा
पारित किसी भी साधारण विधेयक पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर सकता है।
राज्यपाल की स्थिति:-
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राज्य में राज्यपाल केवल संवैधानिक
प्रधान होता है तथा मंत्रिपरिषद राज्य की वास्तविक प्रधान होती है। लेकिन वह बहुत से
मामलों में मंत्रिपरिषद के परामर्श के बिना ही कार्य कर सकता है ।
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संविधान में पूर्णता स्पष्ट
है कि राज्यपाल को किसी विषय में स्वविवेक से कार्य करने का अधिकार है तो इसका निर्णय
स्वयं राज्यपाल करेगा ।
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राज्यपाल की स्वविवेक शक्तियाँ
उसे अत्यधिक शक्तिशाली बना देती हैं लेकिन हाल के वर्षों में राज्यपाल का पद विवादास्पद
हो गया है ।
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राज्यपाल का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण
है वह राज्य तथा केन्द्र सरकारों के मध्य महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करता है।
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राज्यपाल एक ऐसा पद है जिसके
बिना राज्य शासन में काम नहीं चल सकता।
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राज्यपाल की भूमिका सुनिश्चित
करने के लिए समय-समय पर समितियाँ गठित की गयी ।
राज्यपाल की नियुक्ति एवं भूमिका
से संबंधित समितियां एवं आयोग:-
·
प्रमुख राज्यपाल की नियुक्ति
के संबंध में यह प्रथा बन गई थी कि किसी व्यक्ति को उस राज्य का राज्यपाल नियुक्त नहीं
किया जाएगा, जिसका वह निवासी हो ।
·
राज्यपाल की नियुक्ति से पूर्व संबंधित राज्य के
मुख्यमंत्री से विचार-विमर्श किया जाएगा।
·
यह प्रथा 1950 से 1967 तक
अपनायी गई, किंतु 1967 के आम चुनावों के पश्चात् मुख्यमंत्री
से परामर्श की प्रथा समाप्त कर दी गई।
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अब बिना मुख्यमंत्री के परामर्श
से राज्यपाल की नियुक्ति को जाने लगी है।
प्रशासनिक सुधार आयोग
(1966):-
प्रशासनिक सुधार आयोग की प्रमुख सिफारिशें इस
प्रकार थीं:
·
उस व्यक्ति को राज्यपाल के
पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए जिसे सार्वजनिक जीवन एवं प्रशासन का अनुभव हो और जो
अपने आप को दलीय पूर्वाग्रहों से मुक्त रख सकता हो ।
·
राज्यपाल की नियुक्ति के संबंध
में संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श लिया जाना चाहिए।
·
राज्यपाल द्वारा अपने
'स्वविवेक' के अधीन प्रयोग की जाने वाली शक्तियों
का पर्याप्त स्पष्टीकरण किया जाना चाहिए।
·
यदि राज्यपाल को यह समाधान
हो जाए कि मंत्रिमंडल को विधानसभा का समर्थन प्राप्त नहीं रहा तो उसे विधानसभा में
बहुमत सिद्ध करने के लिए मुख्यमंत्री को कहना चाहिए। यदि मुख्यमंत्री इस संबंध में
आनाकानी करता है या विधानसभा का सत्र बुलाने की सिफारिश नहीं करता,
तब राज्यपाल को स्वयं विधानसभा का सत्र बुलाकर स्थिति को स्पष्ट कर देना
चाहिए।
भगवान सहाय समिति (1970):-
1970 में
जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल श्री भगवान सहाय की अध्यक्षता में एक समिति गठित
की गई जिसकी प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं-
·
यदि विधानसभा में मंत्रिमंडल
के पक्ष में समर्थन सन्देहास्पद हो और मुख्यमंत्री विधानसभा का सत्र बुलाने में आनाकानी
करे तो राज्यपाल को तुरन्त मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर देना चाहिए।
·
यदि मुख्यमंत्री के त्यागपत्र
या वस्तगी के बाद राज्य में वैकल्पिक सरकार बनाने की समस्त संभावनाएं क्षीण हो गई हो,
तो ही राज्यपाल को विधानसभा भंग करने और राष्ट्रपति को राज्य में राष्ट्रपति
शासन लागू करने की सिफारिश करनी चाहिए।
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ऐसा व्यक्ति जो विधानसभा का
सदस्य नहीं है या जिसे विधानसभा के लिए मनोनीत किया गया हो,
मुख्यमंत्री के रूप में कार्य करना चाहिए न कि राष्ट्रपति के अभिकर्ता
के रूप में।
राजमन्नार समिति (1969):-
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राज्यपाल की नियुक्ति सदैव
संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श करके ही की जानी चाहिए।
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राज्यपाल के पद पर सेवा प्रदान
कर चुके व्यक्ति को केन्द्र अथवा राज्य सरकार के अधीन पुनः सेवा में नहीं लेना चाहिए।
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राज्यपाल को साबित कदाचार
या अक्षमता के आधार पर केवल उच्चतम न्यायालय की जांच के बाद ही हटाया जाना चाहिए।
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इस संवैधानिक प्रावधान को
तत्काल निरसित कर देना चाहिए कि. "मंत्रिपरिषद्,
राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करेगी।"
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जब विधान सभा में किसी एक
दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो तो राज्यपाल को विधानसभा का अधिवेशन बुलाना चाहिए
और अधिवेशन में बहुमत से चुने गए व्यक्ति को मुख्यमंत्री नियुक्ति करना चाहिए।
सरकारिया आयोग (1983):-
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देश की एकता व अखण्डता के
लिए मजबूत केन्द्र अनिवार्य है।
·
राज्यपाल के रूप में नियुक्त
किया जाने वाला व्यक्ति संबंधित राज्य के बाहर का व्यक्ति होना चाहिए।
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राज्यपाल का चयन करते समय
अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति का भी समुचित ध्यान रखा जाना चाहिए।
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राज्यपाल की नियुक्ति में
संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री की सलाह को संवैधानिक रूप से अनिवार्य घोषित किया जाना
चाहिए।
·
यदि राज्य सरकार विधानसभा
में अपना बहुमत खो देती है तो राज्यपाल को तुरन्त राज्य में सबसे बड़े विरोधी दल के
नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए। यदि विरोधी पक्ष सरकार बनाने की स्थिति
में न हो तो उसे राष्ट्रपति को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करनी
चाहिए।
संविधान समीक्षा आयोग, (2000):-
·
भारतीय संविधान की समीक्षा
के लिए 11 सदस्यीय राष्ट्रीय आयोग के गठन की अधिसूचना सरकार ने 22 फरवरी,
2000 को जारी की।
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पूर्व मुख्य न्यायाधीश एवं
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचेलैया को इस
आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
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इस आयोग ने अपनी प्रथम बैठक
में जिन आठ क्षेत्रों को खोजा, उसमें से राज्यपाल की
नियुक्ति और बर्खास्तगी भी एक क्षेत्र है।
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इस आयोग ने 2001 में राज्यपाल
की नियुक्ति के संबंध में सार्वजनिक बहस के लिए परामर्श पत्र जारी किया।
राज्य मंत्रिपरिषद्:-
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राज्यपाल को परामर्श देने
के लिए एक मंत्रीपरिषद को व्यवस्था की गई है जिसका अध्यक्ष मुख्यमंत्री होता है।
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मंत्रिपरिषद का गठन राज्यपाल
द्वारा किया जाता है।
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राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति
करता है तथा मुख्यमंत्री की सलाह पर वह अन्य मंत्रियों की नियुक्ति भी करता है।
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मंत्रिपरिषद के अन्दर उन्हीं
व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता है जो विधानसभा या विधान परिषद के सदस्य हों,
किन्तु विशेष परिस्थितियों में मंत्रिपरिषद में ऐसे व्यक्तियों को भी
शामिल किया जा सकता है जो इनके सदस्य न हो अतः इन सदस्यों के 6 माह के भीतर विधान सभा
या परिषद का सदस्य बनना पड़ता है।
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मंत्रिपरिषद का अस्तित्व तब
तक बना रहता है जब तक मुख्यमंत्री अपने पद पर बना रहता है।
मंत्री परिषद के कार्य निम्नलिखित हैं:
a.
मंत्रिपरिषद राज्यपाल को सभी
प्रमुख नियुक्तियों में परामर्श प्रदान करती है।
b.
यह सरकार की नीति का निर्धारण
तथा उसका कार्यान्वयन करती है।
c.
यह राजा का बजट तैयार कर उसे
विधान सभा द्वारा पारित करवाती है.
d.
विधानसभा में अधिकांश विशेष
मंत्री परिषद सदस्यों द्वारा प्रस्तावित किए जाते हैं।
मुख्यमंत्री की नियुक्ति:-
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राज्यपाल विधान सभा के बहुमत
दल के नेता को मुख्यमंत्री नियुक्त करता है।
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चुनाव में किसी दल के बहुमत
प्राप्त न कर पाने की स्थित में राज्यपाल अपने विवेक से मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता
है और उसे नियत समय के अंदर विधानसभा में बहुमत साबित करने का निर्देश देता है।
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मुख्यमंत्री की नियुक्ति पाँच
वर्ष के लिये की जाती है, किन्तु वह तब तक ही अपने पद
पर बना रहता है जब तक उसे विधानसभा में विश्वास प्राप्त होता है।
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विधानसभा में बहुमत समाप्त
होते ही उसे त्यागपत्र देना पड़ता है।
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वह त्यागपत्र नहीं देता तो
राज्यपाल उसे बर्खास्त कर सकता है।
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मुख्यमंत्री के परामर्श पर
राज्यपाल मंत्रिपरिषद् के अन्य मंत्रियों की नियुकित करता है।
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मंत्रिपरिषद का आकार राज्य
की परिस्थिति तथा मुख्यमंत्री कीइच्छानुसार बदलता हैं।
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मंत्रिपरिषद के विरूद्ध आचरण
करने पर या मुख्यमंत्री के आदेश का उल्लंघन करने पर किसी भी मंत्री को राज्यपाल,
मुख्यमंत्री की सलाह पर बर्खास्त कर सकेगा।
मुख्यमंत्री के कार्य एवं शक्तियाँ:-
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मंत्रिमंडल का अध्यक्ष होने
के कारण वह मंत्रिमंडल का गठन करता है।
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मंत्रिमंडल का अध्यक्ष होने
के कारण मंत्रिमंडल की बैठकों की अध्यक्षता करता है।
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राज्यपाल को राज्यशासन या
व्यवस्थापन सम्बन्धी निर्णयों से अवगत कराता है।
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कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान
होने के कारण उसे समस्त प्रशासन के निरीक्षण का अधिकार प्राप्त है।
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विधानसभा में शासकीय नीतियों
तथा कार्यों की घोषणा और स्पष्टीकरण करने का उत्तरदायित्व मुख्यमंत्री पर ही होता है।
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मंत्रिमंडल के सदस्यों के
मध्य विभागों का बंटवारा करता है।
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मंत्रिमंडल के पुनर्गठन की
शक्ति भी मुख्यमंत्री को प्राप्त है। यदि वह आवश्यक समझे तो मंत्रिमंडल का विस्तार
या संकुचन कर सकता है।
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मुख्यमंत्री राज्यपाल का प्रमुख
सलाहकार होता है। मुख्यमंत्री किसी भी मंत्री से त्यागपत्र मांग सकता है। यदि वह त्यागपत्र
नहीं देता है तो राज्यपाल मुख्यमंत्री के परामर्श पर उसे मंत्रिपरिषद् से हटा सकता
है।
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राज्य के प्रशासन को सुचारु
रूप से चलाने के लिए मुख्यमंत्री अनेक महत्त्वपूर्ण नियुक्तियाँ राज्यपाल से परामर्श
करके करवाता है।
महाधिवक्ता:-
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अनुच्छेद 165 के अनुसार प्रत्येक
राज्य का एक महाधिवक्ता होगा जो भारत के महान्यायवादी के समान होगा।
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भारत
के महान्यायवादी के कृत्यों के समान वह राज्य में कार्य करेगा।
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राज्य
का राज्यपाल उसे नियुक्त करेगा तथा राज्यपाल के प्रसादपर्यन्त वह पद पर बना रहेगा।
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महाधिवक्ता
पद के लिए वही योग्यताएँ आवश्यक हैं जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति के
लिए अर्हित की जाती हैं।
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इसका
पारिश्रमिक राज्यपाल द्वारा निर्धारित होगा।
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महाधिवक्ता
राज्य विधानमंडल के सदनों की कार्यवाहियों में भाग ले सकता है। अपने विचार प्रकट कर
सकता है, किंतु उसे सदन में मतदान का अधिकार प्राप्त नहीं है।
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