State Legislature/राज्य विधानमंडल


राज्य विधानमंडल/State Legislature


राज्य विधानमंडल का गठन:-

·        अनुच्छेद 168 के अनुसार प्रत्येक राज्य का एक विधान मंडल होगा, जो राज्यपाल और विधानसभा तथा विधानपरिषद् नामक एक या दो सदनों से मिलकर बनेगा।

·        राज्य विधानमंडल के निम्न सदन को 'विधान सभा' तथा उच्च सदन को 'विधानपरिषद्' कहते हैं।

·        जिन राज्यों में एकसदनात्मक व्यवस्था है वहाँ राज्यपाल और विधान सभा के सम्मिश्रण से राज्य विधान मंडल का निर्माण हुआ है, जैसे: राज्य विधानमंडल = राज्यपाल +विधानसभा

·        इसके विपरीत द्विसदनात्मक व्यवस्था के अन्तर्गत स्थिति अलग है, जैसे:- राज्य विधानमंडल = राज्यपाल+ विधानपरिषद् +विधानसभा

 

विधानपरिषद्:-

·        विधान परिषद विधान मंडल का उच्च सदन है।

·        जिन राज्यों में विधान परिषद नही है उनका गठन किया जा सकता है तथा जिन राज्यों में विधान परिषद है वहाँ उनको समाप्त किया जा सकता है। इस प्रक्रिया के लिये विधानसभा कुल सदस्यों के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की संख्या के न्यूनतम 2/3 बहुमत से एक संकल्प पारित करेगा, जिसका अनुसरण करते हुये संसद इस संबंध में एक नियम बनायेगी।

·        विधान परिषद में एक-तिहाई सदस्य विधान सभा से तथा एक तिहाई सदस्य स्थानीय संस्थाओं से निर्वाचित किये जाते हैं। इसमें 1/12 सदस्य विश्वविद्यालय के स्नातकों तथा 1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत किये जाते हैं। विधान परिषद की सदस्य संख्या विधानसभा के 1/3 से अधिक नहीं होगी किन्तु यह संख्या न्यूनतम 40 से कम भी नहीं होगी।

·        विधान परिषद के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष होता है। प्रत्येक 2 वर्ष पर 1/3 सदस्य अवकाश प्राप्त कर लेते हैं।

·        विधान परिषद, यथाशीघ्र अपने दो सदस्यों को अपना सभापति तथा उपसभापति चुनेगी।

·        सभापति तथा उपसभापति तब तक अपने पद पर बने रहेंगे जब तक वे सदन के सदस्य हैं।

·        सभापति तथा उपसभापति एक-दूसरे को संबोधित कर अपना त्याग पत्र दे सकते हैं।

·        इन्हें 14 दिन पूर्व सूचना देकर विधान परिषद की समस्त सदस्य संख्या के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा हटाया जा सकता है।

 

परिषद् की सदस्यता के लिए योग्यताएँ:-

·        वह भारत का नागरिक हो।

·        अपनी आयु के 30 वर्ष पूरे कर चुका हो।

·        संसद द्वारा निश्चित की गई योग्यता रखता हो। संसद ने राज्य विधान परिषद् की सदस्यता के लिए लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 द्वारा निम्न अर्हताएँ निश्चित की हैं:

a.       राज्य विधान परिषद् का सदस्य चुने जाने के लिए उस व्यक्ति को उस राज्य के किसी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र का निर्वाचक होना चाहिए।

b.      राज्यपाल द्वारा राज्य विधान परिषद् में कोई व्यक्ति तभी मनोनीत किया जाएगा, जब वह राज्य में मामूली तौर पर निवासी हो ।

 

विधान परिषद् की बैठक:-

·        विधान परिषद् की गणपूर्ति के लिए आवश्यक है कि उसके सदस्यों में से कम से कम 10 प्रतिशत सदन में उपस्थित हों। उदाहरणार्थ यह संख्या यदि 100 है तो सदस्य संख्या 10 से कम नहीं होनी चाहिए।

·        जब तक गणपूर्ति प्राप्त न हो तो सदन के अध्यक्ष का यह कर्तव्य है कि वह सदन की बैठक स्थगति कर दे।

·        विधान परिषद् की वर्ष में कम-से-कम दो बैठकें होनी चाहिए।

विधान सभा:-

विधान सभा का गठन:-

·        विधान मंडल का निम्न सदन 'विधानसभा' कहलाता है।

·        प्रत्येक राज्य की अपनी एक विधानसभा होती है जो उस प्रदेश के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से व्यस्क मताधिकार द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने हुए सदस्यों से मिलकर बनेगी।

·        संविधान के अनुसार किसी भी विधानसभा में 500 से अधिक और 60 से कम सदस्य नहीं होंगे। गोवा (40) सिक्किम (32) तथा मिजोरम (40) सदस्य इसके अपवाद हैं।

·        विधान सभा का कर्यकाल 6 वर्ष था। लेकिन 44 वे संशोधन द्वारा इसकी अवधि 5 वर्ष कर दी।

·        राज्यपाल इसे 5 वर्ष से पूर्व भी विघटित कर सकता हैं आपात काल में इसकी अवधि एक बार में 1 वर्ष बढाई जा सकती है।

·        विधानसभा का प्रत्येक सदस्य संविधान की तीसरी अनुसूची के अनुसार शपथ लेगा।

·        राज्यपाल द्वारा इस प्रयोजन के लिए सदन के वरिष्ठतम सदस्य को प्राधिकृत किया जाता है।

·        राज्य विधानसभा यथाशीघ्र दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष चुनेगी।

·        अध्यक्ष अपने पद के संबंध में राज्यपाल से शपथ ग्रहण करेगा।

·        यदि विधानसभा अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष विधान सभा के सदस्य नहीं रहते तो अपना पद रिक्त कर देते हैं।

 

विधानसभा की सदस्यता के लिए योग्यताएँ:-

 

·        संविधान के अनुच्छेद 173 के अनुसार विधान सभा की सदस्यता के लिए निम्न योग्यताएं होनी आवश्यक हैं:

a.       वह भारत का नागरिक हो।

b.      अपनी आयु के 25 वर्ष पूरे कर चुका हो।

c.       वह भारत सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर कार्यरत न हो।

d.      संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि के अधीन राज्य विधानसभा का सदस्य चुने जाने के अयोग्य न हो अर्थात् पागल या दिवालिया न हो।

·        अनुच्छेद 192 के अनुसार यदि यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कोई व्यक्ति सदस्यता के लिए योग्य अथवा अयोग्य है या नहीं तो इस सम्बन्ध में निर्णय निर्वाचन आयोग की सलाह पर किया गया, राज्यपाल का विनिश्चय अंतिम होगा।

 

गणपूर्ति तथा बैठक:-

·        विधान सभा की कार्यवाही के लिए कुल सदस्य संख्या का कम-से-कम 10% सदस्यों का होना अनिवार्य है।

·        यदि सदस्य संख्या 100 है तो यह कोरम 10 सदस्यों से कम नहीं होना चाहिए।

·        विधान सभा की कम-से-कम दो बैठकें वर्ष में होनी चाहिए  किन्हीं दो सत्रों के मध्य 6 माह से अधिक का अन्तराल नहीं होना चाहिए।

 

विधायी प्रक्रिया:-

·        द्विसदनीय विधानमंडल वाले राज्यों की विधायी प्रक्रिया संसद के समान है, किंतु कुछ बातों में यह संसद से भिन्न भी है। राज्य विधान मंडल की विधायी प्रक्रिया निम्न प्रकार से है:

साधारण विधेयक:-

·        साधारण विधेयक मन्त्रिपरिषद् के किसी सदस्य या विधानमण्डल के किसी भी सदस्य द्वारा विधानमण्डल के किसी भी सदन में रखे जा सकते हैं।

·        यदि विधेयक मन्त्रिपरिषद् के किसी सदस्य द्वारा रखा जाता है तो इसे 'सरकारी विधेयक' और यदि राज्य विधान मण्डल के किसी अन्य सदस्य द्वारा रखा जाता है तो इसे 'निजी सदस्य विधेयक' कहा जाता है।

·        राज्य विधान मण्डल को भी कानून निर्माण के लिए लगभग वैसी ही प्रक्रिया अपनानी होती है, जैसी प्रक्रिया संसद के द्वारा अपनायी जाती है।

·        ऐसे विधेयकों को कानून का रूप ग्रहण करने के लिए अग्रलिखित अवस्थाओं में गुजरना होता है:

विधेयकों की प्रस्तुति तथा प्रथम वाचनः

·        सरकारी विधेयकों के लिए कोई पूर्व सूचना देने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु निजी सदस्य विधेयकों के लिए एक महीने की पूर्व सूचना जरूरी है।

·        सरकारी विधेयक साधारणतया सरकारी गजट में छाप दिया जाता है और इस पर किसी भी समय आवश्यकता के अनुसार विचार किया जा सकता है।

·        निजी सदस्य विधेयक को प्रस्तुत करने के लिए तारीख निश्चित कर दी जाती है।

·        निश्चित तिथि को विधेयक पेश करने वाला सदस्य अपने स्थान पर खड़ा होकर उस विधेयक को पेश करने के लिए सदन में आज्ञा मांगता है और इसके बाद विधेयक के शीर्षक को पढ़ता है।

·         विधेयक बहुत महत्त्वपूर्ण होता है तो विधेयक पेश करने वाला सदस्य विधेयक पर एक संक्षिप्त भाषण भी दे सकता है। यदि उस सदन में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्य बहुमत से विधेयक का समर्थन करते हैं, तो विधेयक सरकारी गजट में प्रकाशित कर दिया जाता है।

·        इसे विधेयक का प्रथम वाचन समझा जाता है।

द्वितीय वाचन:

·        प्रथम वाचन के बाद विधेयक प्रस्तावित करने वाला सदस्य प्रस्ताव रखता है कि उसके विधेयक का द्वितीय वाचन किया जाए।

·        इस अवस्था में विधेयक के सामान्य सिद्धान्तों पर ही वाद-विवाद होता है, उसकी एक-एक धारा पर बहस नहीं होती है। जब इस प्रकार के वाद-विवाद के बाद कोई विधेयक पारित हो जाता है, तो उसे 'प्रवर समिति' के पास भेज दिया जाता है।

प्रवर समिति अवस्थाः

·        दूसरे वाचन के बाद विवादपूर्ण विधेयकों को प्रवर समिति के पास भेज दिया जाता है।

·        इसमें विधानमण्डल के 25 से 30 तक सदस्य होते हैं।

·        इस अवस्था में विधेयक की प्रत्येक धारा पर गहरा विचार किया जाता है। अनेक प्रकार के सुझाव इस अवस्था में रखे जाते हैं और अन्त में एक प्रतिवेदन तैयार किया जाता है।

·        इस प्रतिवेदन को सदन के सम्मुख पेश किया जाता है।

प्रतिवेदन अवस्थाः

·        प्रवर समिति द्वारा प्रस्तुत किये गये प्रतिवेदन को परिसदन द्वारा विचार किया जाता है।

·        इस अवस्था में सदन के सदस्यों को भी अपने संशोधन और सुझाव प्रस्तुत करने का अधिकार होता है।

·        समिति द्वारा रखे गये प्रत्येक सुझाव पर सदन में मतदान होता है। यदि कोई सुझाव पास न हो तो मूल धारा पर मतदान लिया जाता है।

·        इस तरह विधेयक की प्रत्येक धारा पर विचार और वाद-विवाद करके उसे स्वीकार किया जाता है। विधि-निर्माण की समस्त प्रक्रिया में यह अवस्था सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होती है।

तृतीय वाचन:

·        प्रतिवेदन अवस्था की समाप्ति के कुछ समय बाद उसका तृतीय वाचन प्रारम्भ होता है।

·        इस अवस्था में विधेयक के साधारण सिद्धान्तों पर फिर से बहस की जाती है और विधेयक में भाषा सम्बन्धी सुधार किये जाते हैं।

·        इस अवस्था में विधेयक की धाराओं में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता, या तो सम्पूर्ण विधेयक को स्वीकार कर लिया जाता है या अस्वीकार।

·        इसके बाद मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों को बहुमत द्वारा अस्वीकृत समझा जाता है।

·        विधेयक दूसरे सदन में एक सदन द्वारा विधेयक स्वीकार कर लिये जाने पर जिन राज्यों में विधानमण्डल का द्विसदनीय होता है, वहां विधेयक दूसरे सदन में भेज दिया जाता है।

·        द्वितीय सदन में भी विधेयक को उन्हीं अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है, जिन अवस्थाओं से होकर विधेयक प्रथम सदन में गुजरा था।

·        यदि विधेयक विधानसभा द्वारा पारित होने के पश्चात् विधानपरिषद् द्वारा अस्वीकृत कर दिया जाता है या परिषद् तीन महीने तक विधेयक पर विचार पूरा नहीं कर पाती या परिषद् विधेयक में ऐसे संशोधन करती है जो विधानसभा को स्वीकार नहीं होते, तो विधान सभा उस विधेयक को पुनः स्वीकृत करके परिषद् के पास भेजती है।

·        यदि परिषद् पुनः विधेयक अस्वीकृत कर देती है अथवा दोबारा विधेयक पास नहीं करती या परिषद् विधेयक में पुनः संशोधन करती है जो विधानसभा को स्वीकार्य नहीं होते तो विधेयक विधान परिषद् द्वारा पारित किये जाने के बिना ही दोनों सदनों द्वारा पास हुआ समझ लिया जाता है।

·        विधेयक दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत होने पर राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है।

·        राज्यपाल या तो उस विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे देता है अथवा कुछ सुझावों सहित विधानमण्डल के पास दुबारा भेज सकता है।

·        यदि राज्य विधानमण्डल उस विधेयक को राज्यपाल द्वारा सुझाये गये संशोधनों सहित या रहित रूप से दुबारा पास कर देता है तो राज्यपाल को विधेयक पर अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है।

·        राज्यपाल को स्वीकृति के बाद यह विधेयक कानून बन जायेगा। अनेक बार राज्यपाल कुछ विशेष प्रकार के विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज देता है, ऐसे विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त करने के बाद ही कानून बन पाते हैं।

 

वित्त विधेयक:-

·        वित्त विधेयक पारित करने की प्रक्रिया के सम्बन्ध में कुछ विशेष बातें हैं। संविधान के अन्तर्गत वित्त विधेयक के होते हैं, जिनका सम्बन्ध निम्न बातों से हो

a.       किसी कर को लागू करने, परिवर्तन करने या व्यवस्थित करने से सम्बन्धित विधेयक |

b.      ऋण लेने, राज्य द्वारा अनुग्रह प्रदान करने अथवा राज्य के किसी आर्थिक कर्तव्य से सम्बन्धित विधेयक।

c.       राज्य की संचित निधि और आकस्मिक निधि पर किसी भी रूप में प्रभाव डालने से सम्बन्धित विधेयक

·        उपर्युक्त विषयों के अतिरिक्त उन्हें भी वित्त विधेयक समझा जायेगा. जिसे विधान सभा का अध्यक्ष वित्त विधेयक घोषित कर दे।

·        विधेयकों की प्रक्रिया का सम्बन्ध केवल विधानसभा में ही प्रस्तुत किये जा सकते हैं और विधानपरिषद् को वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में लगभग वे ही अधिकार प्राप्त हैं जो राज्य सभा को केन्द्रीय वित्त विधेयकों के सम्बन्ध में हैं।

·        विधानसभा द्वारा पारित वित्त विधेयक विधान परिषद् के पास विचारार्थ भेज दिया जाता है।

·        परिषद् उस विधेयक की प्राप्ति की तिथि से चौदह दिन बाद तक न लौटाए तो वह विधेयक दोनों सदनों द्वारा अस्वीकृत, समझा जायेगा।

·        परिषद् चौदह दिन की अवधि में विधेयक को अपने संशोधन सहित लौटा भी दे तो इन संशाधनों के साथ या इन संशेधनों के बिना, जिस रूप में भी विधेयक को राज्यपाल के पास भेजना चाहे भेज सकती है और राज्यपाल की स्वीकृति से यह विधेयक . कानून का रूप ग्रहण कर लेता है।

राज्य विधान मंडल की शक्तियाँ:-

·        राज्य विधानमण्डल को राज्य तथा समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। किंतु विधान मंडल द्वारा समवर्ती सूची के विषय पर बनाया गया कानून संसद द्वारा बनाये कानून से नहीं टकराना चाहिये।

·        मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है। विधान मंडल मंत्रिमंडल को उत्तरदायी बनाने के लिये विभिन्न अधिकारों को प्रयोग कर सकता है—जैसे प्रश्न पूछकर पूरक प्रश्न पूछकर सूचना मांगकर, स्थगन प्रस्ताव द्वारा निन्दा प्रस्ताव द्वारा, सरकार की नीतियों की आलोचना करके, मंत्रियों द्वारा किये गये भ्रष्टाचारो का उल्लेख करके, अविश्वास प्रस्ताव द्वारा इत्यादि।

·        संविधान में संशोधन में कई अनुच्छेदों में कम से कम आधे राज्यों के विधान मंडल की अनुमति आवश्यक हैं।

·        राष्ट्रपति के निर्वाचन में भी राज्य के विधानमण्डलों की प्रमुख भूमिका है।

·        विधानमण्डल, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सभापति तथा उपसभापति और सदन के सदस्यों को पदमुक्त करने की भी शक्ति रखती है।

·        राज्य विधानमण्डल राज्य के लिये वित्त पर पूर्ण नियंत्रण रखता हैं राज्य की सरकार द्वारा कोई भी कर इसकी अनुमति के बिना नहीं लगाया जा सकत और न ही कोई व्यय उसकी अनुमति के बिना किया जा सकता है।

राज्य विधानमंडल की शक्तियों पर प्रतिबन्ध:-

1.      आपात काल के दौरान राज्य विधानमंडल राज्य सूची के विषय पर कानून नहीं बना सकते और इस दौरान विधि निर्माण की शक्ति संसद में निहित हो जाती है।

2.      राज्य विधानमंण्डल संविधान की सातवीं अनुसूची की तृतीय सूची (समवर्ती सूची) में शामिल विषयों पर कानून बना सकते हैं। लेकिन यदि इन विषयों पर संसद द्वारा भी विधि का निर्माण किया गया है और संसद द्वारा निर्मित विधि राज्य विधानमंडल द्वारा निर्मित विधि के विरोध में है, तो राज्य विधानमंडल द्वारा निर्मित विधि उस सीमा तक शून्य होगी, जिस सीमा तक वह संसद द्वारा निर्मित विधि के विरोध में है।

3.      राष्ट्रपति की पूर्वानुमति के बिना राज्य विधानमंडल राज्य सूची के कुछ विषयों पर विधि का निर्माण नहीं कर सकते। उदाहरणार्थ; अन्तर्राज्यिक व्यापार या वाणिज्य पर युक्तियुक्त निर्बन्धन अधिरोपित करने वाला कानून।

4.      राज्य सभा दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करके संसद को राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है। जब संसद को ऐसा अधिकार दिया गया हो, तब राज्य विधान मंडल उस विषय पर कानून नहीं बना सकते। राज्यसभा, संसद को यह अधिकार एक राज्य या एक से अधिक राज्यों के संबंध में दे सकती है।

5.      संघ की शक्तियों या उच्च न्यायालयों की अधिकारिता को प्रभावित करने वाले विधेयक राज्य विधान मंडल पारित कर सकते हैं, लेकिन इस विधेयक को राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति के लिए आरक्षित कर सकते हैं और राष्ट्रपति की सम्मति के बाद ही ये विधेयक कानून के रूप में प्रवर्तित होते हैं।


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