Fundamental Rights/मौलिक अधिकार
मौलिक अधिकार/Fundamental Rights
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मौलिक अधिकार वे अधिकार हैं,
जो किसी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता एवं अभिवृद्धि
के लिए आवश्यक हैं और जिन्हें राज्य के विरुद्ध न्यायपालिका का संरक्षण प्राप्त होता
है, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। इनके अभाव में लोकतंत्र अर्थहीन
हो जाता है।
भारत में मौलिक अधिकारों की माँग:-
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भारत में मौलिक अधिकारों की
घोषणा के लिए सबसे पहले सन् 1895 में मांग की गई। इसके पश्चात् 1917 तथा 1919 के दौरान
कांग्रेस द्वारा संकल्प पारित करके मूल अधिकारों की मांग की गई।
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दैहिक स्वतन्त्रता,
जीवन रक्षा के अधिकार, आदि कुछ ऐसे अधिकार थे,
जिन्हें धीरे-धीरे ब्रिटिश संसद ने भारतीय शासन के सन्दर्भ में मान्यता
दी थी।
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1925 में श्रीमती एनी बेसेन्ट
द्वारा प्रस्तुत 'दि कॉमनवेल्थ ऑफ इण्डिया बिल
में मूल अधिकारों की भी घोषणा निहित थी।
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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
ने 1927 में 'मद्रास अधिवेशन में एक संकल्प पारित कर
निर्धारित किया। कि भारत के भावी संविधान का आधार मूल अधिकारों की घोषणा होनी चाहिए।
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1928 में सर्वदलीय सम्मेलन
द्वारा नियुक्त नेहरू समिति ने अपने प्रतिवेदन में स्पष्ट रूप से प्रत्येक भारतीय के
लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अधिकारों की मांग की।
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मार्च 1931 में कांग्रेस ने
अपने कराची अधिवेशन में मूल अधिकारों की मांग को दोहराया।
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1946 में संविधान सभा के गठन
की योजना प्रस्तुत करने वाले कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों में सुझाव दिया गया कि संविधान
सभा में अल्पसंख्यकों, मौलिक अधिकारों और कविलाई क्षेत्रों
के सम्बन्ध में प्रतिवेदन देने के लिए एक परामर्श समिति की नियुक्ति की जानी चाहिए।
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संविधान सभा ने सरदार वल्लभभाई
पटेल की अध्यक्षता में परामर्श समिति गठित की।
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परामर्श समिति ने 27 फरवरी,
1947 को पाँच उपसमितियाँ गठित की, जिनमें से एक
मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित समिति थी।
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मौलिक अधिकार उप समिति के
संवैधानिक परामर्शदाता बी. एन. राव थे तथा मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित इस उपसमिति
के सदस्य कृपलानी, मीनू भनी, के.टी. शाह अल्लादि कृष्णास्वामी अथर के एम. मुन्शी, सरदार हरनामसिंह मौलाना आजाद, डॉ. अम्बेदकर, हंसा मेहता, सरदार पटेल, के. एम.
निकर तथा राजकुमारी अमृत कौर आदि ।
मौलिक अधिकारों का महत्त्व:-
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मौलिक अधिकार लोकतंत्र के
आधार स्तम्भ है।
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मौलिक अधिकार व्यक्ति की स्वतंत्रता
की रक्षा करते हैं तथा कार्यपालिका व विधायिका पर नियंत्रण लगाते हैं।
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व्यक्ति के आर्थिक,
सामाजिक राजनीतिक विकास एवं प्रगति के लिए मौलिक अधिकार आवश्यक है।
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मौलिक अधिकार द्वारा व्यक्ति
को राजनीतिक प्रक्रिया में सहभागिता सुनिरिचित होती है।
राज्य की परिभाषा:-
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संविधान के अनुच्छेद 12 में
'राज्य' की परिभाषा दी गई है।
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मूल अधिकारों के अध्याय में
सर्वप्रथम राज्य की परिभाषा देने का मुख्य उद्देश्य यह रहा है कि व्यक्ति को प्रदत्त
मूल अधिकार राज्य अथवा राज्य - कृत्यों के विरूद्ध संरक्षण प्रदान करने वाले हैं।
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राज्य में निम्नलिखित सम्मिलित
हैं:-
i.
भारत सरकार,
ii. संसद,
iii. राज्य
सरकार,
iv. राज्यों
के विधानमंडल,
v. स्थानीय
अधिकारी,
vi. सार्वजनिक
उपक्रम
मौलिक अधिकारों का वर्गीकरण:-
a. समानता
का अधिकार ( अनुच्छेद 14 से 18 )
b. स्वतंत्रता
का अधिकार (अनुच्छेद 19 से 22 )
c. शोषण
के विरूद्ध अधिकार ( अनुच्छेद 23-24)
d. धर्म
की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
e. संस्कृति
और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
f.
संविधानिक उपचारों का अधिकार
(अनुच्छेद 32 )
·
केवल नागरिकों को प्राप्त
मौलिक अधिकार अनुच्छेद 15, 16, 19
तथा 29, 30 के अंतर्गत है।
समानता का अधिकार ( अनुच्छेद
14 से 18 ):-
विधि के समक्ष समानता एवं विधियों
के समान संरक्षणः (अनुच्छेद 14)
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विधि के समक्ष सभी
समान है अर्थात् विधि प्रधानमंत्री से लेकर सामान्य व्यक्ति तक सभी व्यक्तियों के साथ
समान व्यवहार करेगी।
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विधि के समक्ष समानता में
यह भाव निहित है कि विधि सर्वोच्च है और विधि से ऊपर कोई नहीं।
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विधि के समक्ष समानता का सिद्धान्त
प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के अनुरूप है, यह सभी को
सुनवाई का समुचित अधिकार प्रदान करता है।
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'कानून के समक्ष समानता'
का नियम डायसी के विधि के शासन पर आधारित हैं अर्थात् ब्रिटिश मूल का
है। यह नियम सर्वाधिक रूप से राज्य की निरंकुशता पर प्रहार करता है।
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इस नियम में निम्न बातें सम्मिलित
हैं :-
a. किसी
व्यक्ति विशेष के पक्ष में कोई विशेष सुविधा नहीं ।
b. न्यायालय
के तहत सभी व्यक्तियों के लिए समान विषय
c. कोई
व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है।
विधि के समक्ष समानता के अपवाद:-
i.
361 (1) व 361 (2) राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने कार्यों के लिए न्यायालय
के प्रति उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा और पदावधि के दौरान न्यायालय में दाडिक कार्यवाही
नहीं की जाएगी ।
ii. विदेशों
के शासक और उनके राजदूत आदि को दाडिक या सिविल कार्यवाहियों से उन्मुक्ति होगी।
iii. संयुक्त
राष्ट्र और उसके अभिकरणों को राजनयिक उन्मुक्ति प्राप्त है ।
iv. अनुच्छेद
31 (अ) ।
v. 39
(ख) व (ग) (अनुच्छेद) ।
विधि के समक्ष समान संरक्षण का
अधिकार :
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अनुच्छेद 14 में एक ओर विधि
के समक्ष समानता का अधिकार दिया गया है, तो दूसरी
ओर विधि के समक्ष समान संरक्षण का अधिकार है।
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विधि के समक्ष समान संरक्षण
से तात्पर्य है समान परिस्थितियों वाले व्यक्तियों के साथ समान व्यवहार और असमान परिस्थितियों
वाले व्यक्तियों के साथ असमान व्यवहार अर्थात् न्यायालय या राज्य पीड़ित व्यक्ति के
या कमजोर या निर्बल व्यक्ति के लिए तर्कसंगत भेदभाव का प्रावधान कर सकता है।
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इस प्रकार
'विधि' के समक्ष समान संरक्षण' तर्कसंगत भेदभाव पर आधारित है।
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यह अमेरिकी संविधान से लिया
गया है।
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यह कानून सकारात्मक है।
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विधि के समक्ष समानता एवं
विधि के समक्ष समान संरक्षण एक-दूसरे का पूरक है
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विधि के समक्ष समानता नकारात्मक
संदर्भ में है और विधि के समक्ष समान संरक्षण सकारात्मक संदर्भ है।
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विधि के समक्ष समानता का नियम
तब तक सार्वभौम रूप से लागू नहीं हो सकता है जब तक व्यक्ति असमान हो अर्थात् असमान
परिस्थितियों वाले व्यक्तियों के लिए समान कानून, विधि
के समक्ष समानता का भी उल्लंघन है।
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न्यायमूर्ति पतंजलि के अनुसार
यह दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं एक के अतिक्रमण से दूसरे का भी उल्लंघन होता है।
सामाजिक समानता का अधिकारः
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अनुच्छेद 15 में धर्म,
वंश, लिंग, जाति,
निवास स्थान के आधार पर विभेद का निषेध करता है।
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अनुच्छेद 15 (1) राज्य को
आदेश देता है कि वह धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई
विभेद नहीं करेगा।
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अनुच्छेद 15(2) राज्य और व्यक्ति
दोनों को आदेश देता है। इनमें से कोई भी दुकानों, सार्वजनिक
भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश या कुओं,
तालाबों और सार्वजनिक उपागम के स्थानों के उपयोग में विभेद नहीं करेगा।
अपवाद
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15 (3) राज्य को स्त्रियों
और बालकों के लिए विशेष उपबंध करने की शक्ति देता है। इस खंड के आधार पर उच्चतम न्यायालय
ने भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को विधिमान्य ठहराया है। इस धारा में जारकर्म के
लिए पुरूष को दंड दिया जा सकता है किन्तु स्त्री को नहीं।
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15(4) संविधान संशोधन अधिनियम
प्रथम (1951) द्वारा जोड़ा गया था। इस संशोधन का उद्देश्य राज्य को सामाजिक और शैक्षिणक
दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के वर्गों के लिए और अनुसूचित जाति और जनजातियों के
लिए विशेष उपबंध बनाने के लिए समर्थ बनता था।
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15 (5) 93वें संविधान संशोधन
अधिनियम द्वारा सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए निजी शिक्षण संस्थानों
में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
अवसर की समानता का अधिकार
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अनुच्छेद 16 का खंड (1) और (2) राज्य के अधीन किसी पद या अन्य नियोजन में नियुक्ति
के विषय में सभी नागरिकों को समान अवसर का अधिकार प्रदान करता है।
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सभी नागरिकों को ऊँचा उठने
के समान अवसर उपलब्धता को यह अनुच्छेद सुनिश्चित करता है।
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अवसर की समानता को वास्तविक
रूप से उपलब्ध करने के लिए राज्य को सकारात्मक उपबंध करने के लिए 16 (3) से 16(5) तक
प्रावधान किए गए है।
अस्पृश्यता का अंतः
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अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का
अंत करता है।
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हिन्दुओं में बहुत दिनों से
शूद्रों के प्रति अमानवीय व्यवहार उच्च जातियों द्वारा किया जा रहा है। इस कारण निम्न
जाति के लोगों को सार्वजनिक स्थानों पर तिरस्कार का सामना करना पड़ता था।
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स्वामी दयानंद,
ज्योति फूले, महात्मा गाँधी और डॉ. अम्बेडकर ने
इस अमानवीय व्यवहार का विरोध किया था।
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यह अधिकार प्राइवेट व्यक्तियों
के विरुद्ध भी है क्योंकि राज्य अस्पृश्यता का आचरण नहीं कर सकता है।
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अनुच्छेद 17 अनुच्छेद 35 के
साथ संसद को अस्पृश्यता के आचरण के लिए दंड विधि बनाने की शक्ति प्रदान करता है। इस
शक्ति का प्रयोग करते हुए संसद ने अस्पृश्यता अपराध अधिनियम 1955 पारित किया।
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1976 में इसे और कठोर बनाया
गया और इसका नाम परिवर्तित करके 'सिविल अधिकार संरक्षण
अधिनियम 1955 किया गया। इस अधिनियम में निम्नलिखित के लिए दंड का प्रावधान है:-
i.
सार्वजनिक पूजा स्थल से रोकना।
ii. अस्पृश्यता
के आधार पर अनुसूचित जाति का अपमान ।
iii. ऐतिहासिक,
दार्शनिक व धार्मिक आधार पर अस्पृश्यता को उचित ठहराना।
iv. सार्वजनिक
मनोरंजन स्थानों के प्रवेश पर रोक।
v. सेवा
देने से इंकार ।
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1976 के इस अधिनियम के तहत अस्पृश्यता
मामले में किसी व्यक्ति को अधिकतम छः महीने के कारावास की सजा दिये जाने का प्रावधान
है।
उपाधियों का अंतः
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हमारे देश में औपनिवेशिक काल
में राजा. राय बहादुर, दीवान बहादुर जैसी असमानता
वाली उपाधियाँ प्रदान की जाती है।
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अनुच्छेद 18 ऐसी उपाधियों
के अंत की घोषणा करता है।
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अनुच्छेद 18 में उपाधियों
के उन्मूलन के बारे में चार व्यवस्थाएँ हैं :
i.
यह सुनिश्चित करता है कि कोई
व्यक्ति चाहे वह नागरिक हो या विदेशी राज्य के तहत कोई उपाधि (सेना और शिक्षा को छोड़कर)
नहीं लेगा।
ii. यह
भारत के नागरिकों को विदेशों से उपाधि लेने पर रोक लगाता है।
iii. कोई
भी विदेशी लाभ के पद पर रहते हुए राष्ट्रपति को मंजूरी के बिना विदेशी राज्य से कोई
उपाधि नहीं ले सकता है।
iv. लाभ
के पद पर आसीन नागरिक या विदेशी अन्य देश से कोई भी सुविधा या वेतन राष्ट्रपति की अनुमति
के बिना नहीं ले सकता है।
स्वतंत्रता का अधिकार:-
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अनुच्छेद 19-22 तक स्वतंत्रता
संबंधी अधिकारों का प्रावधान है।
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अनुच्छेद 19 में छ: स्वतंत्रताओं
का उल्लेख है।
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अनुच्छेद 19(1) के छ: स्वतंत्रताएँ इस प्रकार हैं:-
i.
भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
।
ii. सोलन
की स्वतंत्रता।
iii. संगठन
की स्वतंत्रता।
iv. भारत
के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतंत्रता।
v. भारत
के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने की स्वतंत्रता।
vi. कोई
वृति,
उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता।
भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताः
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भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
से आशय है कि व्यक्ति अपने विचार बोलकर लिखकर छपवाकर या संकेतों के माध्यम से व्यक्त
कर सकता है। यहाँ तक कि वह सरकार के विरुद्ध भी विचार व्यक्त कर सकता है।
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19 (1) (क) ने प्रेस की स्वतंत्रता
का उल्लेख नहीं किया गया है तथापि इसमें प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार भी सम्मिलित
है।
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अनुच्छेद 19 खण्ड (2) के अंतर्गत
भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबंध निम्न आधारों पर लगाए जा
सकते हैं-भारत की प्रभुसत्ता और अखंडता, राज्य की
सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार एवं सदाचार, न्यायालय अवमान, मानहानि, अपराध
उद्दीपन ।
सम्मेलन का अधिकारः
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भारतीय नागरिकों 19 (1) ख
के अन्तर्गत बिना हथियारों के शांतिपूर्वक सम्मेलन का अधिकार प्रदान किया। साथ ही
19 (3) के तहत इस अधिकार पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने का भी प्रावधान हैं नागरिकों
को जुलूस निकालने का अधिकार तथा सम्मेलन करने का भी अधिकार है।
संगठन की स्वतंत्रता:
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19 (1) ग में नागरिकों को
संघ बनाने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। इसी अनुच्छेद के अधीन कंपनी,
सोसाइटी. भागीदारी, व्यवसाय संघ एवं क्लब आदि बनाने
का अधिकार है।
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19 (4) के तहत संगठन की स्वतंत्रता
पर युक्तियुक्त प्रतिबंध भारत की एकता अखंडता, लोक व्यवस्था
और नैतिकता के आधार पर लगाए जा सकते हैं।
भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर
संचरण का अधिकारः
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अनुच्छेद 19(1)(घ) के अंतर्गत
भारतीय नागरिकों भारत राज्यक्षेत्र के भीतर संचरण का अधिकार दिया गया है परंतु अधिकार
पर 19 (5) प्रतिबंध की व्यवस्था भी दो आधारों पर की गई (1) साधारण जनता के हित में
(2) अनुसूचित जाति/जनजाति के हितों के संरक्षण के लिए।
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एन.बी. खेर बनाम दिल्ली
(1950) बाद में न्यायालय ने कहा, जिला मजिस्ट्रेट या पुलिस
आयुक्त द्वारा किसी व्यक्ति को यह आदेश दिया जाना कि वह तीन मास की अवधि के लिए जिले
से बाहर चला जाए विधिमान्य होगा क्योंकि आदेश की अवधि अनिश्चित है या आदेश स्थाई रूप
से बाहर रहने को टूटता है तो वह आदेश युक्तिमुक्त नहीं होगा।
राज्य क्षेत्र के भीतर निवास
की स्वतंत्रता
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अनुच्छेद 19 (1) (ड.) भारत
के किसी भाग पर निवास करने और बस जाने का अधिकार देता है।
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इस पर भी 19(5) के तहत युक्तियुक्त
प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं प्रतिबंध के आधार इस प्रकार हैं- (1) साधारण जनता के हित
में. (2) अनुसूचित जनजाति के हितों के संरक्षण के लिए।
वृत्ति, उपजीविका और व्यापार अधिकार :
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अनुच्छेद 19 (1) (छ) के अंतर्गत
भारतीय नागरिकों को वृत्ति, उपजीविका, व्यापार और कारोबार की स्वतंत्रता भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर है। इस स्वतंत्रता
पर युक्तियुक्त निषेध लगाने का अधिकार खंड (6) में दिए गए हैं। ये आधार इस प्रकार हैं-
a. साधारण
जनता का हित
b. आवश्यक
वृतिक अर्हताएँ
c. राज्य
के पक्ष में पूर्व में पूर्वतः या भागतः अधिकार सृजन ।
अपराधों के लिए दोषसिद्धि संबंधी
संरक्षण (अनुच्छेद 20 ):
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भारत में व्यक्तियों को न
केवल सामान्य परिस्थितियों अपितु अपराध की परिस्थिति में भी अनेक अधिकार अनुच्छेद
20 के अंतर्गत प्रदान किए. गए हैं।
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अनुच्छेद 20 के तीन खंड इस
प्रकार हैं:-
a. अनुच्छेद
20(1) के अनुसार अपराध के संदर्भ में भूतलक्षी विधि प्रभावी होगी अर्थात् किसी व्यक्ति
को अपराध के लिए वही दंड दिया जा सकता है जो कि अपराध के समय प्रचलित था न कि नवविधान
द्वारा बना दंड।
b. अनुच्छेद
20 (2) में दोहरे दंड के निषेध का प्रावधान है अर्थात् एक ही अपराध के लिए व्यक्ति
को एक से अधिक बार दंडित नहीं किया जा सकता है। परंतु दोहरे दंड में विभागीय कार्यवाही
सम्मिलित नहीं
c. अनुच्छेद
20 (3) में प्रावधान है कि व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं
किया जा सकता है।
जीवन और दैहिक स्वतंत्रता का
अधिकार
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(अनु. 21 ) जीवन और दैहिक
स्वतंत्रता का अधिकार ऐसा अधिकार है जो न केवल सामान्य काल अपितु आपातकाल में भी व्यक्तियों
को प्राप्त होता है। सामान्य रूप से जीवन और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार का तात्पर्य
है कि राज्य विधि के बिना किसी व्यक्ति के जीवन का अंत नहीं करेगा ।
जीविका का अधिकार:-
सर्वोच्च न्यायालय ने पटरीवासियों के मामले
में जीविका के अधिकार को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत शामिल किया है। इस दिशा में सरकार
ने कदम उठाते हुए राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम पारित किया है। जिसके तहत नागरिक
वर्ष में 100 दिन के रोजगार का अधिकार दिया गया है।
गिरफ्तारी व निरोध से संरक्षण
का अधिकारः
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अनुच्छेद 22(1) व (2) के अंतर्गत
व्यक्तियों को गिरफ्तारी के समय निम्न अधिकार प्रदान किए गए हैं-
i.
गिरफ्तारी के कारण जानने का
अधिकार।
ii. वकील
से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने का अधिकार।
iii. गिरफ्तारी
के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किए जाने का अधिकार।
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अनुच्छेद 22 (3) में 22
(1) व (2) के अपवादों का उल्लेख है अर्थात् निम्नांकित व्यक्तियों 22 (1) व (2) के
अंतर्गत संरक्षण उपलब्ध नहीं होगा।
a. शत्रु
देश के व्यक्ति को,
b. निवारक
निरोध विधि के अंतर्गत अर्थात् अपराध की शंका के आधार पर गिरफ्तार व्यक्ति को ।
शोषण के विरुद्ध अधिकार
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अनुच्छेद 23 व 24 व्यक्ति
की गरिमा के अनुरूप शोषण के विरुद्ध अधिकारों का प्रावधान करता है।
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अनुच्छेद 23 मानव के दुर्व्यापार,
बेगार और सभी प्रकार के बलातश्रम को प्रतिषिद्ध करता है।
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बिना वेतन के कार्य करवाना,
बलातश्रम से तात्पर्य किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे
बिना कुछ भुगतान किए काम करने को विवश करना दुर्बल व्यक्ति का शोषण है।
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मानव के दुर्व्यापार,
बेगार और बलातश्रम को रोकने के लिए संसद ने अनैतिक व्यापार (निवारण)
अधिनियम 1956 और बंधुआ श्रम उन्मूलन अधिनियम 1976 अधिनियमित किया है
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बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम
भारत संघ (1984) वाद में न्यायालय ने सरकार को बंधुआ उन्मूलन के लिए ठोस कदम उठाने
के लिए कहा है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
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संविधान की प्रस्तावना में
धर्मनिरपेक्षता और सभी नागरिकों को विचार अभिव्यक्ति विश्वास धर्म और आवास की स्वतंत्रता
प्राप्त करने के आदर्श की घोषणा की गई। इ
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सी दिशा में अनुच्छेद
25-28 में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार का प्रावधान किया गया है।
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अनुच्छेद 25 (1) प्रत्येक
व्यक्ति के अंतःकरण की स्वतंत्रता एवं किसी भी धर्म को अबाध रूप से मानने,
उसका आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई।
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प्रत्येक व्यक्ति को यह स्वतंत्रता
है कि वह अपने अंत:करण के अनुसार किसी भी धर्म को माने। उसे इस बात की भी स्वतंत्रता
है कि वह चाहे जिस माधयम से ईश्वर से संबंध स्थापित करे।
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अनुष्ठान आदि सम्पन्न करने
एवं अपने धर्म को दूसरे तक संप्रेषित करने की भी छूट है।
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अनुच्छेद 25 में दी गई स्वतंत्रता
पर लोक व्यवस्था नैतिकता और स्वास्थय के आधार पर तथा धार्मिक आचरण से संबंधित आर्थिक
राजनैतिक क्रियाकलापों तथा सामाजिक कल्याण और सुधार, अर्थात्
हिंदुओं की संस्थाओं को हिंदुओं के सभी वर्गों के लिए खोलने आदि के आधार पर प्रतिबंध
लगाया जा सकता है।
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अनुच्छेद 26 में प्रत्येक
संप्रदाय को धार्मिक संस्थाओं की स्थापना और उनके प्रबंधन एवं प्रशासन का अधिकार प्रदान
किया।
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अनुच्छेद 27 में व्यक्ति को
धार्मिक कार्यों में दी गई राशि पर कर अदायगी से छूट प्रदान की गई।
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अनुच्छेद 28 में व्यक्तियों
को राज्य द्वारा पूर्णतः या अंशतः घोषित शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक
उपासना में उपस्थित होने से छूट प्रदान की।
शिक्षा और संस्कृति संबंधी अधिकार
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अनुच्छेद 29 (1) के अंतर्गत
भारत के राज्यक्षेत्र के सभी नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि
और संस्कृति बनाए रखने का अधिकार प्रदान किया गया है।
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अनुच्छेद 29 (2) में प्रावाधान
है कि राज्य द्वारा घोषित या राज्य निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में
प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मुलवंश,
जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित
नहीं किया जाएगा।
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अनुच्छेद 30 के तहत भारतीय
संविधान में धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यक दोनों समुदायों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित
करने का अधिकार दिया गया है।
संपत्ति का अधिकार
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प्रारम्भ में अनुच्छेद 31
के अंतर्गत संपत्ति का अधिकार एक मौलिक अधिकार था। परंतु 44वां संविधान संशोधन अधिनियम,
1978 संपति के अधिकार को मौलिक अधिकारों से निकालकर भाग XI के अनुच्छेद 300 (क) में स्थापित कर दिया गया। अब संपत्ति का अधिकार मौलिक
अधिकार नहीं अपितु कानूनी अधिकार है।
सूचना का अधिकार
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सर्वोच्च न्यायालय में ईशर
आयल लि. बनाम हेल्थ उत्कर्ष समिति द में अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सूचना के अधिकार को
सम्मिलित किया।
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इस दिशा में सरकार ने अक्टूबर
2005 में कदम उठाते हुए सूचना अधिकार अधिनियम पारित किया है। परंतु वर्तमान में यह
कानूनी अधिकार है।
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इसका उद्देश्य जनसंबंधी मामलों
में पारदर्शिता को बढ़ाना तथा सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को रोकना है।
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यह अधिनियम नागरिकों को प्रशासन
के सभी स्तरों पर सूचना हासिल करने का व्यावहारिक अधिकार प्रदान करता है।
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यह विधेयक काफी विस्तृत है
और यह केन्द्र, राज्य, स्थानीय सरकारों,
सार्वजनिक प्राधिकरणों और सरकारी अनुदान प्राप्त करनेवाले संस्थानों
पर लागू होता है।
मानवाधिकार
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1991 में भारत सरकार ने मानवाधिकारों
के बढ़ते उल्लंघन को रोकने हेतु मानवाधिकार संरक्षण एक्ट 1993 के तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार
आयोग का गहन किया।
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इस आयोग का मुख्यालय दिल्ली
में है।
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इसके कुल आठ सदस्य होते हैं,
जिसमें अध्यक्ष के अतिरिक्त एक उच्चतम न्यायालय के वर्तमान या सेवानिवृत्त
मुख्य न्यायाधीश, एक उच्च न्यायालय के वर्तमान या सेवानिवृत्त
मुख्य न्यायाधीश, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा, अ. जाति व जनजाति आयोग के राष्ट्रीय अधयक्ष, राष्ट्रीय
अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष तथा दो ऐसे व्यक्ति जो मानवाधिकारों के संघर्ष के लिए ख्याति
प्राप्त हो।
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आयोग खुद अथवा किसी आवेदन
के आधार पर मानवाधिकार उल्लंघन की जाँच करता है।
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किसी मामले की सुनवाई कर सरकार
को सलाह देता है। तथा सरकार आमतौर पर इन सुझावों के आधार पर कार्यवाही करती है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा गठित एक समिति
ने आयोग के संरक्षण कानून 1993 को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए इस कानून में अनेक
सुधार एवं बदलाव की सिफारिशें की हैं।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009
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बच्चों के निःशुल्क एवं अनिवार्य
शिक्षा विधेयक 2008 को संसद ने 4 अगस्त, 2009 को अपनी
मंजूरी प्रदान की। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं.
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यह सुनिश्चित करता है कि इसे
14 वर्ष तक के सभी बच्चों को बुनियादी गुणवत्तायुक्त शिक्षा निःशुल्क उपलब्ध हो।
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समाज के कमजोर वर्ग के बच्चों
के लिए शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए इसमें विशेष उपबंध किये गये हैं।
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बच्चों के अभिभावक को अधिक
भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु प्रत्येक विद्यालय में एक विद्यालय प्रबंधक समिति के
गठन का प्रावधन किया गया है।
·
शिक्षक छात्र अनुपात का मानक
निर्धारित किया गया है यह अनुपात 1:40 रखने का है।
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शिक्षकों के पद इसकी कुल क्षमता
के 10% से अधिक कम नहीं होने चाहिये।
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बच्चों को शारीरिक दण्ड देने,
प्रवेश के दौरान बच्चों या उनके अभिभावकों की स्क्रीनिंग करने,
कैपिटेशन पफीस लेने एवं विद्यार्थियों को विद्यालय से निष्कासित करने
को प्रतिबंधित किया गया है।
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जनगणना,
चुनाव कार्य व आपदा राहत कार्य के अतिरिक्त अन्य कार्यों के लिए शिक्षक
की नियुक्ति पर प्रतिबंध लगाया गया है। ) बिना समुचित मान्यता के किसी विद्यालय का
संचालन एक दंडनीय अपराध घोषित किया गया है।
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कानून के क्रियान्वयन पर निगरानी
रखने के लिए 'राष्ट्रीय बुनियादी शिक्षा आयोग के गठन
का प्रावधन है।
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केन्द्र और राज्य सरकारें
निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए अब कानूनी रूप से बाध्य होंगी।
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सरकारी सहायता न पाने वाले
निजी विद्यालयों को भी अब प्रवेश स्तर की प्रारंभिक कक्षा में प्रवेश को 25% सीटें
अपने आस-पास के वंचित बच्चों के लिए आरक्षित रखनी होगी। ऐसे बच्चों की पढ़ाई का खर्च
सरकार वहन करेगी।
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इस अधिनियम के तहत् 1 अप्रैल,
2010 से बच्चों की मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम
2009 लागू हुआ।
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6-14 वर्ष के सभी बच्चों को
स्कूली शिक्षा प्रदान करना केन्द्र एवं राज्य सरकार के साथ-साथ माता-पिता या संरक्षक
जैसी भी स्थिति ही अपने बच्चे को शिक्षा लेने का अवसर प्रदान करेंगे।
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