Sources and Features of the Indian Constitution/भारतीय संविधान के स्रोत एवं विशेषताएं
भारतीय संविधान के स्रोत एवं विशेषताएं/Sources and Features of the Indian Constitution
भारतीय संविधान के स्रोत:-
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डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व
में हमारे संविधान निर्माताओं ने विश्व के सर्वोत्तम संविधानों का गहन अध्ययन किया
और देश की तत्कालीन आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार उनके महत्त्वपूर्ण उपबन्धों
को ग्रहण किया। इसके साथ ही अपने देश की प्राचीन प्रथाओं एवं अभिसमयों,
पुराने संवैधानिक अधिनियमों, अध्यादेशों इत्यादि
को ध्यान में रखते हुए एक ऐसे संविधान का निर्माण किया जो भारत की तत्कालीन ही नहीं,
भविष्य की असाधारण परिस्थितियों में भी भली-भांति कार्य कर सके।
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विभिन्न देशी-विदेशी प्रभावों
से मुक्त भारत का नवीन संविधान ब्रिटिश कालीन शासन व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण विरासत
है।
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संविधान निर्माताओं ने विदेशी
संविधानों की अनेक अच्छी बातें ग्रहण कर लीं तथा एक सुन्दरतम संवैधानिक आलेख का निर्माण
किया।
भारतीय संविधान के मुख्य स्त्रोत:-
पुराने संवैधानिक अधिनियम
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1858,
1892, 1909 1919 के संवैधानिक अधिनियम मुख्य रूप
से भारतीय संविधान के प्रेरणा स्रोत रहे
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1935 के भारत शासन अधिनियम
का भारतीय संविधान पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।
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संविधान में करीब दो-तिहाई
प्रावधान 1935 के अधिनियम से लिये गए हैं।
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नए संविधान का 256वां अनुच्छेद
और 1935 के एक्ट की 126वीं धारा लगभग समान हैं। इनके तहत् केन्द्र,
राज्यों को उचित निर्देश देने का अधिकार रखता है l
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संविधान का 352वां एवं
356वां अनुच्छेद,
जिनका संबंध राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों से है, 1935 के अधिनियम की धारा 103 से मिलता-जुलता है
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शक्ति-विभाजन की तीन सूचियाँ
(संघ,
राज्य, समवर्ती) के प्रावधान भी लगभग समान हैं।
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केन्द्र अथवा राज्य स्तर पर
विधानमंडल का द्विसदनीय होना संबंधी प्रावधान 1919 के अधिनियम से मिलते-जुलते हैं।
विश्व के प्रमुख संविधानों से लिये गये आदर्श
ब्रिटेन- संसदीय व्यवस्था, विधि निर्माण प्रक्रिया, कानून का शासन. एकल नागरिकता द्विसदनीय व्यवस्था
कनाडा-सशक्त
संघीय व्यवस्था, शक्तियों का विभाजन, राज्यपाल की नियुक्ति, सर्वोच्च न्यायालय की परामर्श
संबन्धी शक्तियाँ
दक्षिण अफ्रीका-संविधान
संशोधन,
राज्यसभा सदस्यों का निर्वाचन
रूस-मौलिक
कर्तव्य,
न्याय संबंधी आदशों की प्रस्तावना में सम्मिलित करना
आस्ट्रेलिया-समवर्ती
सूची,
व्यापार वाणिज्य संबंधी प्रावधान
अमरीका-न्यायपालिका
की स्वतंत्रता, प्रस्तावना, न्यायिक
पुनर्विलोकन, मौलिक अधिकार, न्यायाधीशों
को पद से हटाने की व्यवस्था, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति
आयरलैंड-नीति
निर्देशक सिद्धान्त, राष्ट्रपति का निर्वाचन,
राज्यसभा में सदस्यों को मनोनीत किया जाना
जर्मनी-आपातकालीन
प्रावधान
फ्रांस-गणराज्य
व्यवस्था,
स्वतंत्रता, समानता व बन्धुत्व संबंधी आदर्श
भारत सरकार अधिनियम 1935-संघीय
न्यायपालिका की शक्तियों, संघीय व्यवस्था
संविधान सभा के वाद-विवाद:-
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भारतीय संविधान को समझने के
लिए संविधान सभा की 'डिबेट्स' का गम्भीर परायण अनिवार्य है।
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संविधान सभा की कार्यवाही
एवं वाद-विवाद काफी विस्तृत हैं और उनके सूक्ष्म अध्ययन से संविधान में प्रयुक्त शब्दावली
का स्पष्ट भाव निकाला जा सकता है।
न्यायिक निर्णय:-
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भारतीय संविधान का एक प्रमुख
स्रोत न्यायिक निर्णय हैं, जो न्यायाधीशों ने समय-समय
पर दिए हैं।
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न्यायाधीश संवैधानिक कानून
की व्याख्या करते हैं और उनके निर्णय तब तक प्रभावी रहते हैं जब तक कि न्यायपालिका
स्वयं द्वारा इस सम्बन्ध में कोई अन्य निर्णय न दे दे।
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भारत के सर्वोच्च न्यायालय
और विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा ऐसे अनेक न्यायिक निर्णय दिए गए हैं जो हमारे देश
के कानून का उसी प्रकार महत्त्वपूर्ण भाग है. जिस प्रकार कि संविधान के विभिन्न अनुच्छेद।
संविधियां, अध्यादेश, नियम विनियम, आदेश आदि:-
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संविधान के मूल प्रलेख के
अतिरिक्त संविधियां अध्यादेश. नियम-विनियम, आदेश,
आदि भी हमारे संविधान के कानूनी तत्त्व हैं।
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संविधियां केन्द्रीय और राज्य
विधानमण्डलों द्वारा बनाई जाती हैं। केन्द्रीय संसद ने अनेक कानून बनाए हैं,
जो संविधान के अभिन्न भाग बन गए हैं।
संवैधानिक संशोधन:-
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भारतीय संविधान के अभिन्न
स्रोत हैं।
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मूल संविधान में मूल कर्त्तव्यों
का कोई उल्लेख नहीं था, किन्तु बाद में 1976 में संविधान
के (42वें संशोधन अधिनियम द्वारा इस विषय पर एक नया अध्याय संविधान में जोड़ दिया गया।
संविधान की मुख्य विशेषताएँ:-
लोकप्रिय प्रभुसत्ता संविधान,
भारतीय जनता द्वारा निर्मित है जिसके द्वारा अंतिम शक्ति जनता को हो
प्रदान की गई है अर्थात् प्रभुसत्ता जनता में निहित है. किसी व्यक्ति विशेष में नहीं।
संविधान की प्रस्तावना में भी कहा गया है, "हम भारत के लोग
इढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949 ई. को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित
और आत्मार्पित करते हैं।"
मौलिक अधिकारः मौलिक
अधिकारों का आशय नागरिकों को प्रदत्त ऐसे अधिकार और स्वतन्त्रता से है,
जिन्हें राज्य तथा केन्द्र सरकार के विरुद्ध भी लागू किया जा सकता है।
संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 14 से अनुच्छेद 32 तक इन अधिकारों का वर्णन है। ये कुल
छह अधिकार हैं। अनुच्छेद 31 के तहत् प्राप्त सम्पत्ति के मौलिक अधिकार को 1978 में
संविधान के 44वें संशोधन अधिनियम की धारा 6 द्वारा समाप्त कर दिया गया है। न्यायालय
इनकी सुरक्षा में उपचार स्वरूप निम्न लेख (रिट) जारी कर सकता है।
नीति निर्देशक तत्त्वः संविधान
के भाग IV में
शासन संचालन के लिए अनुच्छेद 36 से 51 तक कुछ निर्देशक तत्त्वों का वर्णन किया गया
है। 86वें संविधान संशोधन द्वारा 2002 में 6 से 14 वर्ष के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा
संबंधी मौलिक कर्त्तव्य जोड़ा गया। जिसके कारण अब मौलिक कर्त्तव्यों की कुल संख्या
11 हो गई है।
लिखित और विस्तृत संविधानः हमारा
संविधान ब्रिटिश संविधान के विपरीत अमरीकी संविधान की भांति निर्मित और लिखित है। आइबर
जैनिंग्ज ने भारतीय संविधान को "विश्व का सर्वाधिक विस्तृत संविधान" कहा
है। हमारे संविधान में 395 अनुच्छेद 22 भाग और 12 अनुसूचियाँ हैं। जबकि अमरीका के संविधान
में केवल 7, कनाडा में 147 और आस्ट्रेलिया में केवल
128 अनुच्छेद हैं। स्वरूप की दृष्टि से भारत का संविधान सबसे विस्तृत संविधान है।
42वें संविधान संशोधन से तो भारतीय संविधान की व्यापकता में और वृद्धि हो गई है। इस
संशोधन द्वारा संविधान में 11 नवीन अनुच्छेद और 2 नवीन भाग (भाग चौथा 'व' और चौदहवां 'अ') जोड़े गए हैं। 97वें संविधान संशोधन में अधिनियम 2011 में कॉपरेटिव सोसाइटी
नामक नया भाग IX - B संविधान में जोड़ा गया है।
वयस्क मताधिकारः भारत
का प्रत्येक वह नागरिक, जो 18 वर्ष (मूल संविधान में
21 वर्ष) की आयु पूरी कर चुका है, लोकसभा व विधान सभा और पंचायत
के चुनावों में वोट देने का अधिकारी होगा। राज्य उसके साथ इस सम्बन्ध में धर्म,
जाति, वंश, वर्ण,
लिंग, आर्थिक स्थिति, शैक्षिक
योग्यता, निवास स्थान इत्यादि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।
इसे "सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार " कहा गया है।
समाजवादी राज्यः 1976
में संविधान के 42वें संशोधन द्वारा संविधान की 'प्रस्तावना'
में 'समाजवादी' शब्द जोड़ा
गया। हमने 'मिश्रित अर्थव्यवस्था' को अपनाकर
भारतीय समाजवाद को लोकतांत्रिक समाजवाद के रूप में स्वीकार किया है।
धर्मनिरपेक्ष राज्यः धार्मिक
समुदायों में परस्पर प्रतिस्पर्द्धा एवं वैमनस्यता को समाप्त करने के लिए भारतीय संविधान
में धार्मिक स्वतन्त्रता को स्थान दिया गया। 1976 में 42वें संविधान संशोधन से संविधान
की प्रस्तावना में 'पंथनिरपेक्ष' शब्द सम्मिलित किया गया। इसका अर्थ यह है कि राज्य की दृष्टि में सभी धर्म
समान हैं और राज्य के द्वारा विभिन्न धर्मावलम्बियों में कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।
वस्तुतः धर्मनिरपेक्ष राज्य धर्म विरोधी नहीं होता और न ही धर्म के प्रति उदासीन ही
रहता है, वरन् उसके द्वारा धार्मिक मामलों में तटस्थता की नीति
को अपनाया जाता है।
कठोर एवं लचीला संविधानः भारतीय
संविधान न तो परम्पराओं से निर्मित ब्रिटिश संविधान की भांति लचीला है (लचीला संविधान
वह होता है, जिसमें संविधान संशोधन की प्रक्रिया सरल
होती है) और न ही अमरीकी संविधान की भांति अत्यधिक कठोर (कठोर संविधान वह होता है,
जिसमें संविधान संशोधन की प्रक्रिया जटिल होती है)। भारतीय संविधान में
संशोधन की जो प्रक्रिया दी गई हैं, उसमें कठोरता और लचीलेपन का
अनुपम मिश्रण मिलता है। इस प्रकार भारतीय संविधान में दक्षिण अपिका की संविधान संशोधन
प्रक्रिया जैसी मध्यमार्गी व्यवस्था को अपनाया गया।
संघात्मक शासन व्यवस्था- संविधान
द्वारा भारत में संघात्मक शासन की व्यवस्था की गई है,
जिसके तहत् केन्द्र और राज्यों की कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका का अपना-अपना
कार्यक्षेत्र है। केन्द्र और राज्यों के मध्य संघ सूची, राज्य
सूची और समवर्ती सूची के तहत् स्पष्ट रूप से शक्ति विभाजन किया गया है। हमारे संविधान
का यह अनूठा लक्षण है कि यह आपातकाल में संघात्मक व्यवस्था को एकात्मक स्वरूप प्रदान
करता है।
संसदीय शासन एवं मंत्रिमण्डलीय सरकार: अध्यक्षीय
शासन प्रणाली के स्थान पर हमने संसदीय शासन का ब्रिटिश प्रतिमान अपनाया है,
जिसमें कार्यपालिका तभी तक अपने पद पर रह सकती है जब तक कि उसे विधायिका
का विश्वास प्राप्त रहता है। राष्ट्रपति नाममात्र का कार्यपालिका प्रमुख होता है और
वास्तविक शक्तियाँ मंत्रिमण्डल के पास होती हैं जो कि सामूहिक रूप से विधायिका (लोक
सभा) के प्रति निरन्तर अपना उत्तरदायित्व निभाता है। यह मंत्रिमण्डलीय सरकार का प्रमुख
लक्षण है।
मौलिक कर्त्तव्यः 1976
में संविधान के 42वें संशोधन द्वारा मूल संविधान में एक नया भाग "IVA" और
"अनुच्छेद 51.क" जोड़ा गया, जिसमें नागरिकों
के दस मूल कर्त्तव्य बताए गए हैं।
स्वतन्त्र न्यायपालिका: संविधान
द्वारा प्राप्त मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता अपरिहार्य
है। हमारे संविधान में भी इसकी व्यवस्था की गई है, जैसे— उच्चतम
न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होना,
न्यायाधीशों को पद की सुरक्षा प्राप्त होना, न्यायाधीशों
के कार्यकाल में तथा उनके वेतन में कमी न हो सकना और न्यायाधीशों के आचरण पर विधायिका
द्वारा विचार न कर सकना आदि।
एकल नागरिकता: संघात्मक
शासन व्यवस्था में ऐसा समझा जाता है कि राज्य के नागरिकों को दोहरी नागरिकता (प्रथम,
संघ की नागरिकता तथा द्वितीय, राज्य या इकाई की
नागरिकता) प्राप्त होगी। भारतीय संविधान निर्माताओं के अनुसार यह सिद्धान्त भारत। की
एकता को बनाए रखने में बाधक सिद्ध हो सकता था। अतः इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए
भारतीय संविधान निर्माताओं ने एकल नागरिकता के आदर्श को अपनाया।
एकल संविधान: जहाँ
संविधान जहाँ अमेरिका संघ सरकार और राज्य सरकार दोनों के पृथक-पृथक संविधान है। वहीं
भारत में केन्द्र और राज्य दोनों के लिए एक ही संविधान है। यही कारण भारतीय संविधान
विश्व का सबसे बड़ा संविधान हैं।
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