Mauryan Empire/मौर्य साम्राज्य

 

 


मौर्य साम्राज्य/Mauryan Empire:-

 मौर्य इतिहास के स्रोत

 

साहित्यिक स्रोत:

·       मौर्यकाल के प्रमुख स्रोतों में कोटिल्य का अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज की इण्डिका, विशाखादत्त का मुद्राराक्षस है।

·        पुराणों में वायु पुराण व विष्णु पुराण, बौद्ध साहित्य में दीपवंश, महावंश तथा दिव्यावदनान, जैन साहित्य में भद्रबाहु का कल्पसूत्र तथा हेमचन्द्र का परिशिष्ट पर्वन तथा विदेशी यात्रियों में जैसे- हवेनसांग, फाह्यान इत्सिंग निर्याकस, एनिसिक्रिटस, अरिस्येबुलस. स्ट्रेबो, कर्टियस, डिओडोरस, प्लूक, जस्टिन, प्लिनी इत्यादि के विवरण से मौर्य काल के इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है।

 

पुरातात्विक स्त्रोत

 

·       अशोक के अब तक प्राप्त हुए लगभग 37 अभिलेख, रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख, मौर्यकालीन कलाकृतियां तथा भग्नावशेष, स्तूपों, विहारों, मठों. गुफाओं आदि से तथा मौर्य कालीन सिक्कों से भी उस समय के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

 

मौर्य शासक

 

चन्द्रगुप्त मौर्य (323-295 ई.पू.)

·       चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरु चाणक्य (कौटिल्य या विष्णुगुप्त) की सहायता से मगध के शासक धनानन्द का वध करके 'मगध' पर अधिकार कर लिया था।

·       चन्द्रगुप्त किस वंश का था, इस विषय में विद्वानों के पर्याप्त मतभेद है।

·        ब्राह्मण ग्रंथ उसे शुद्र बताते हैं। मुद्राराक्षस में उसके लिए 'वृषल' तथा 'कुलहीन' शब्द आये हैं।

·       डॉ. आर. के. मुकर्जी के अनुसार वह क्षत्रिय कुल का था. इस विचार की पुष्टि के लिए आर.के. मुकर्जी ने जस्टिन (Justin) के शब्दों का उल्लेख किया है कि “That he was born in humble life." अतः कुलहीन से तात्पर्य 'असम्पन्न' है, शूद्र से नहीं।

·       अर्थशास्त्र से चन्द्रगुप्त मौर्य के क्षत्रिय होने के संकेत मिलते हैं।

·       बौद्ध साहित्य 'महावंश', 'दिव्यावदान' आदि में स्पष्ट रूप में उसे क्षत्रिय वंश का स्वीकार किया गया है।

·       जैनाचार्य हेमचन्द्र के ग्रंथ 'परिशिष्टपर्वन' के समर्थन में 'हरिभद्र टीका' तथा 'पुण्याश्रव कथाकोष' में चन्द्रगुप्त को मयूर पोषकों के सरदार का 'दोहित्र' बताया गया है।

·       फोशे (Foucher), सर जॉन मार्शल (Sir John Marshal) तथा ग्रुनवेडल (Grunwedel) इस मत से सहमत हैं। कि मोर मौयों का राज्य चिह्न था और संभवतः मयूर के आधार पर ही इस वंश का नाम मौर्य पड़ा।

·       डॉ. रोमिला थापर ने उसे वैश्य वर्ण का माना है।

·       चन्द्रगुप्त मौर्य की 'चन्द्रगुप्त' संज्ञा का प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य रुद्रदाम के जूनागढ़ अभिलेख से मिलता है।

·       सर्वप्रथम उसने पंजाब पर और फिर मगध पर अधिकार किया।

·       मगध की केन्द्रीय सत्ता हाथ में लेने के बाद उसने 305 ई.पू. में सैल्यूकस को पराजित किया।

·       सैल्यूकस को उससे संधि करनी पड़ी।

·       संधि की शर्तें निम्न थीं:-

a.     सैल्युकस ने चंद्रगुप्त को आरकोसिया (कंधार). पेरोपनिसडाई (हेरात) के प्रांत, एरियना (काबुल) एवं जेड्रोसिया के क्षत्रपियों के कुछ भाग प्रदान किये।

b.    बदले में चंद्रगुप्त ने 500 हाथी सैल्युकस को दिये।

c.     चंद्रगुप्त ने सैल्युकस की पुत्री से विवाह कर लिया।

d.    सैल्युकस का राजदूत मेगास्थनीज चंद्रगुप्त के दरबार में आया, जिसने 'इण्डिका' नामक पुस्तक लिखी।

 

मेगास्थनीज:

·       चन्द्रगुप्त (सिकंदर का उत्तराधिकारी) के मध्य हुए संधि के अंतर्गत मेगास्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में दूत के रूप में आया।

·       मेगास्थनीज 'इण्डिका' में भारतीय जन-जीवन की विभिन्न सांस्कृतिक अवस्था का वर्णन किया है।

·       'इण्डिका' अब अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसके बिखरे हुए भाग को 1846 में शानबैक ने संगृहीत कर 'मेगास्थनीज इण्डिका' नाम से प्रस्तुत किया।

·       मेगास्थनीज ने तत्कालीन भारत के पूर्व से पश्चिम विस्तार को 28,000 स्टेडिया तथा उत्तर से दक्षिण की ओर विस्तार को 32,000/- स्टेडिया बताया।

·       चन्द्रगुप्त मौर्य की दक्षिण भारत की विजय के विषय में जानकारी तमिल ग्रंथ 'अहनानूरु' और 'पुरनानुरु' तथा अशोक के अभिलेखों से मिलती है।

·       तिब्बती इतिहासकार तारानाथ तथा डॉ. वी. ए. स्मिथ मानते है कि दक्षिणी भारत पर बिन्दुसार ने विजय पाई थी।

·       यूनानी इतिहासकार चन्द्रगुप्त को इस विजय का श्रेय देते हैं।

·       चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में सौराष्ट्र तक का प्रांत जीता था।

·       चन्द्रगुप्त का साम्राज्य उत्तर में हिमालय तथा पश्चिम में हिन्दूकुश तक फैला था। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र' थी।

·       जैन परम्परा के अनुसार 24 वर्ष तक शासन करने के पश्चात् उसने संन्यास धारण कर लिया तथा अपने पुत्र बिन्दुसार को राज्य सौंप कर भद्रबाहु के साथ मैसूर चला गया।

·       वहां लगभग 298 ई.पू. उपवास से उसने अपने प्राण त्याग दिये। इसे जैन धर्म में सल्लेखन कहा गया है।

·       जैन परम्परा के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने शासन काल के अंत में जैन धर्म को स्वीकार कर लिया था।

इण्डिका में उल्लिखित प्रमुख्य बातें:-

·       इण्डिका के अनुसार भारत में गंगा और सिन्धु सहित कुल 58 नदियां थीं।

·       इण्डिका के अनुसार सोना, चांदी, तांबा एवं टिन प्रचुरता से उपलब्ध थे।

·       भारत में चींटियां सोने का संग्रह करती थीं।

·       यहां के तोते (पंछी) काफी प्रभावशाली थे तथा छोटे बच्चों की तरह बातें करते थे।

·       मौर्य काल में बहुविवाह प्रथा का प्रचलन था ।

·       भारतीय ईमानदार होते थे।

·       यहां के लोग डायोनिसस (शिव) एवं हेराक्लीज (विष्णु) की पूजा करते थे।

·       मेगास्थनीज ने पाटलिपुत्र को पालिब्रोथा कहा है।

·       उसने पाटलिपुत्र का विस्तार से वर्णन किया है साथ ही चन्द्रगुप्त के अनेक राजप्रासाद का उल्लेख किया है।

·       भारत में 'सिलास' एक ऐसी नदी थी, जिसमें कुछ भी तैर नहीं सकता था।

 

बिन्दुसार (298 ई.पू. 272 ई.पू.):

·       चन्द्रगुप्त मौर्य के पश्चात् उसका पुत्र 'बिन्दुसार' गद्दी पर बैठा।

·       एक जैन गाथा के अनुसार बिन्दुसार की मां 'दुर्धरा' थी

·       यूनानी लेखकों ने उसे 'अमित्रोकेडीज' या 'अमित्रघात' की उपाधि दी।

·       पौराणिक अनुश्रुति में उसके लिये 'नन्दसार' और 'भद्रसार' शब्द मिलता है।

·       'परिशिष्टपर्वन' में 'बिन्दुसार' तथा एक चीनी ग्रंथ में उसे 'बिन्दुपाल' का नाम दिया गया है।

·       बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उसकी 16 रानियां थीं, परंतु उनमें 'सुभद्रांगी' प्रमुख थी।

·       सके शासनकाल में 'तक्षशिला' में दो बार विद्रोह हुआ।

·       पहली बार 'अशोक' ने विद्रोह को दबाया।

·       दूसरा विद्रोह बिन्दुसार की मृत्यु के कारण दबाया नहीं जा सका।

·       'बिन्दुसार' ने अपने शासन काल में कोई प्रदेश विजित नहीं किया।

·       सने यूनान मिस्र, सीरिया आदि देशों से मैत्रीपूर्ण सबंध बनाये।

·       यूनानी राजदूत 'डाइमेकस' उसके दरबार में आया तथा मिस्र के शासक ने भी एक राजदूत 'डायोनिसस' भारत भेजा।

·       एंथेनियस नामक यूनानी लेखक के अनुसार बिंदुसार ने सीरियाई राजा एन्टियोकस प्रथम से तीन चीजें मंगाई थी मीठी मदिरा, सूखी अंजीर तथा एक दार्शनिक (सोफिस्ट), लेकिन सीरियाई नरेश ने तीसरी वस्तु नहीं भिजवाई थी।

·        दिव्यावदान के अनुसार बिंदुसार की मन्त्रिपरिषद् में 500 मंत्री थे।

बिंदुसार के विभिन्न नाम

नाम                   किसने कहा

अमित्रकेटे           यूनानी ग्रंथ

अमित्रघाट           संस्कृत (दुश्मनों की हत्या करने वाला)

अमित्रखण्ड        संस्कृत (दुश्मनों को खाने वाला)

अमित्रचट्टम         एथेनीयस

भद्रसार              वायु पुराण

सिंहसेन              जैनग्रंथ

 

अशोक (273 ई.पू. - 232 ई.पू.):

·       बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बिन्दुसार के 101 पुत्रों में से 'सुमन' (सुसीम) सबसे बड़ा, 'अशोक' दूसरा और 'तिष्य' सबसे छोटा था।

·       18 वर्ष की आयु में अशोक को 'अवन्तिराष्ट्र' का प्रमुख बना कर 'उज्जैन' भेजा गया।

·       वहीं पर अशोक ने 'महादेवी' नाम की शाक्यकुलीन विदिशा की राजकुमारी से विवाह किया ।

·       महेन्द्र और संघमित्रा महादेवी की ही संतान थीं।

·       सके इलाहाबाद स्तम्भलेख से ज्ञात होता है कि उसकी दूसरी पत्नी का नाम 'कारुवाकी' था और उसके पुत्र का नाम 'तिवर' था।

·       सिंहली स्रोत कहते हैं कि अशोक ने 99 भाइयों की हत्या करके सिंहासन प्राप्त किया।

·       अशोक के पाँचवें अभिलेख में उसके जीवित भाइयों के परिवार का उल्लेख है।

 

अशोक के विभिन्न नाम एवं उपाधियां

नाम                               उपाधि

प्रियदस्सी                    आधिकारिक नाम कंधार अभिलेख

देवानाप्रिय                   राजकीय उपाधि

अशोक                        मास्की, गुर्जर, निटुर एवं उदेगोलम अभिलेख

मगध का राजा             भाब्रू अभिलेख

अशोक मौर्य                 जूनागढ़ अभिलेख

अशोक वर्द्धन               पुराण

प्रियदस्सी राजा            बराबर गुफा अभिलेख

 

कलिंग युद्ध (261 ई.पू.)

·       महापद्मनंद ने कलिंग जीतकर मगध साम्राज्य में मिलाया था

·       बिंदुसार के शासनकाल में कलिंग ने स्वतंत्रता घोषित कर दी।

·       दक्षिणी उड़ीसा में स्थित कलिंग के राजा का नाम ज्ञात नहीं है। अशोक ने अपने राज्य के आठवें वर्ष में 'कलिंग' पर विजय प्राप्त की।

·       इस युद्ध का वर्णन और परिणाम शिलालेख 13 के अंतर्गत उसने स्वयं लिखवाये

·       “राज्याभिषेक के 8 वर्ष बाद सम्राट अशोक ने कलिंग पर विजय प्राप्त की। जिसमें 1,50,000/- व्यक्ति कैद किये गये, तथा 1.00,000 लड़ते हुए मारे गये।

·       युद्ध के तुरंत बाद महामना सम्राट ने दया धर्म की शरण ली.

·       बौद्ध धर्म से अनुराग किया और इसका सारे राज्य में प्रचार किया।"

 

तिब्बती इतिहासकार 'तारानाथ' के अनुसार अशोक ने कलिंग को जीतकर वहाँ दो अधीनस्थ प्रशासनिक केंद्र स्थापित किये।

·        उत्तरी केंद्र                    राजधानी तोसली थी।

·       दक्षिणी केंद्र                   राजधानी जौगढ़ थी। -

 

अशोक का धर्म:

·       'भानू' अभिलेख से प्रमाणित होता है कि उसका व्यक्तिगत धर्म बौद्ध धर्म था। जिसमें अशोक स्पष्ट रूप से बुद्ध धर्म तथा संघ का अभिवादन करता है।

·       दीपवंश और महावंश के अनुसार अशोक के शासन के चौथे वर्ष 'निग्रोध' नामक भिक्षु ने उसे बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था।

·       बाद में मोग्गालिपुततिस्स के प्रभाव में आकर वह पूर्ण रूप से बौद्ध हो गया।

·       दिव्यावदान कहता है कि अशोक को 'उपगुप्त' ने दीक्षित किया था।

 

बौद्ध धर्म का प्रचार:-

·       अशोक प्रथम सम्राट था जिसने बौद्ध धर्म को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने के लिए धर्म महामात्रों की नियुक्ति की।

·       उसने धम्म यात्राएं की तथा धर्म सिद्धांतों को स्वयं अपना कर व्यक्तिगत आदर्श प्रस्तुत किया।

·       राज्याभिषेक के 20वें वर्ष वह बुद्ध का जन्म स्थल लुम्बिनी गया तथा उसने ग्राम-कर मुक्त कर दिया एवं साथ ही बलि कर का सिर्फ 1/8 भाग लेना तय किया।

·       सने 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया था।

·       धर्म के सिद्धांतों को सने चट्टानों, शिलाओं, स्तम्भों और गुफाओं पर खुदवाया।

·       बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म (Buddhism as State Religion) बनाया।

·       कौशाम्बी, पाटलिपुत्र, सारनाथ आदि स्थानों पर बौद्ध विहार तथा मठों की स्थापना की।

·       तीसरी बौद्ध महासभा का आयोजन सी के काल में हुआ।

·       सने विदेशों में भी धर्म प्रचारक भेजे। उसका पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए 'लंका' गये।

·       सके एक शिलालेख में इस प्रकार लिखा है-“चोल, पाण्ड्य, सत्यपुत्र, केरलपुत्र, ताम्रपर्णी के सीमान्त राज्य और यूनान का राजा एण्ट्योकस तथा उसके पड़ोसी, अशोक के धर्म के अनुयायी हैं।"

·       'महावंश' के अनुसार लंका के राजा तिस्स और उसकी संपूर्ण प्रजा ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था।

·       अशोक ने बौद्ध धर्म को 'राजधर्म' ही नहीं, अपितु 'विश्व धर्म' बना दिया।

·       अशोक का धम्मः अशोक का धम्म वास्तव में एक आचार संहिता थी, जिसमें सभी धर्मों का निचोड़ है।

·       अशोक के धम्म की परिभाषा 'राहुलोवावसुत्त' से ली गई है। अपने दूसरे स्तंभ लेख में अशोक स्वयं प्रश्न करता है— धम्म क्या है? इसका उत्तर वह स्वयं दूसरे तथा सातवें स्तंभ-लेख में देता है जहाँ उसने धम्म के गुण गिनाये हैं। अपने 11वें शिलालेख में अशोक ने धम्मदान की तुलना सामान्य दान से की तथा धम्मदान को श्रेष्ठ एवं महाफल वाला बताया है। अशोक ने जिस धर्म अर्थात् दया के धर्म को अपनाया उसके मूल सिद्धांत निम्न हैं:

·       (a) संयम अर्थात् इंद्रियों पर अंकुश (b) भावशुद्धि अर्थात विचारों की पवित्रता (c) कृतज्ञता. (d) दृढभक्ति, (e) दया. (f) दान, (g) शुचि अर्थात् स्वच्छता, (h) सत्य, (i) सुश्रूषा अर्थात् सेवा ( j ) संप्रतिपत्ति अर्थात् सहायता, (k) अपिचित्त अर्थात् श्रद्धा ।

·       अशोक के अभिलेख से अशोक के साम्राज्य का विस्तार, अशोक के धर्म. विदेशी संबंध, राज्य प्रबंध, अशोक के चरित्र, कला व शिक्षा के प्रसार तथा तत्कालीन सामाजिक अवस्था का भी पता चलता है।

·       अशोक के शिलालेखों की संख्या में 14 हैं जो आठ अलग-अलग स्थानों से मिले हैं। 1837 ई. में सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेप को इन्हें पढ़ने में सफलता मिली।

·       अशोक के लघु शिलालेखों से उसके व्यक्तिगत जीवन की जानकारी मिलती है।

·       सात स्तम्भ लेखों का निर्माण शायद 242 ई.पू. हुआ था। ये 6 अलग-अलग स्थानों से प्राप्त हुए है। स्थित था।

a.     प्रयाग स्तम्भ लेख यह स्तम्भ पहले कौशाम्बी में अकबर ने इलाहाबाद के किले में स्थापित किया।

b.    दिल्ली-टोपरा यह स्तम्भ टोपरा से दिल्ली फिरोजशाह तुगलक द्वारा लाया गया। इस पर अशोक के सातों अभिलेखों का उल्लेख है।

c.     दिल्ली-मेरठ यह स्तम्भ मेरठ से दिल्ली फिरोजशाह तुगलक द्वारा लाया गया था। इसकी खोज 1750 ई. में 'टीफैनथेलर' द्वारा की गयी।

d.    रामपुरवा यह स्तंभ चम्पारन (बिहार) में है। इसकी खोज 1872 ई. में 'कारलायल' से की।

e.     लौरिया अरेराज चम्पारन (बिहार) में। 6. लौरिया नन्दनगढ़ चम्पारन (बिहार) में।

अशोक के अभिलेख की लिपियाँ:

·       खरोष्ठी - शाहबाजगढ़ी एवं मानसेहरा

·       अरमाइक तक्षशिला एवं लघमान (काबुल)

·       अरमाइक एवं ग्रीक ( द्विभाषी) – शार-ए-कुना (कन्दहार)

·       शेष सभी शिलालेख, लघु शिलालेख, स्तम्भलेख एवं लघु-स्तंभ की लिपि ब्राह्मी है।

 

अशोक के उत्तराधिकारी:-

·       अशोक के उत्तराधिकारियों के संबंध में प्रामाणिक रूप से कुछ कह सकना कठिन है। यह तो बताया जाता है कि अशोक के कई पुत्र थे, किन्तु यह रहस्य अभी तक खुल नहीं सका कि उनमें से कौन अशोक के पश्चात् गद्दी पर बैठा ?

·       यह माना गया है कि रानी कारुवाकी का पुत्र 'तीवर' गद्दी पर नहीं बैठा। किन्तु उसके अन्य तीन पुत्रों (महेन्द्र, कुणाल और जालौक) का नाम भी साहित्य में आता है। अंतिम मौर्य शासक वृहद्रथ की उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने हत्या कर शुंग वंश की स्थापना की।

 

मौर्यो का पतन:-

·       महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री के अनुसार अशोक की तथाकथित ब्राह्मण विरोधी नीति मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण बनी।

·       डॉ. रोमिला थापर ने मौयों के पतन का कारण प्रशिक्षित अधिकारियों का अभाव तथा उनमें राष्ट्रीयता की भावना का अभाव माना है।

·        डी. एन. झा ने कमजोर उत्तराधिकारियों

·       डॉ. हेमचंद्र राय चौधरी ने सीमांत प्रदेशों के राज्यों (प्रांतों) के राज्यपालों के अत्याचार

·       डी.डी. कौशांबी ने मौर्यकालीन खराब आर्थिक स्थिति को मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण माना है।

·       संक्षेप में प्रांतों में स्वतंत्रता की प्रवृत्ति, कमजोर उत्तराधिकारी, यवन आक्रमण और धम्म विजय की नीति का दुरुपयोग प्रमुख रूप से इस विशाल साम्राज्य के पतन के कारण बने।

मौर्यकालीन प्रशासन:

·       मौर्य साम्राज्य का प्रशासन केन्द्रीकृत था

·       राजा अपने अधिकारों के प्रति अधिक निरकुंश नहीं था।

·       राजा साम्राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण पदों पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति करता था।

·       साम्राज्य मुख्यमंत्री तथा पुरोहित की नियुक्ति से पूर्व उनके चरित्र को खूब जांचा-परखा जाता था, जिसे 'उपधा परीक्षण' कहा जाता था।

·       राजा की निजी सुरक्षा हेतु सशस्त्र अंगरक्षिकाएं होती थी।

·       कौटिल्य ने राज्य के सप्तांग सिद्धांत में राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दण्ड एवं मित्र की व्याख्या की।

·       चन्द्रगुप्त के समय मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत 4 प्रान्त थे, जिनमें

a.     उत्तरापथ (कम्बोज, गांधार, कश्मीर, पंजाब और अफगानिस्तान के क्षेत्र)

b.    अवन्तिराष्ट्र (काठियावाड़, गुजरात, मालवा और राजपूताना के क्षेत्र)

c.     प्राच्य या प्रासी (उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल के क्षेत्र) 

d.    दक्षिणापथ (विन्ध्य के द. का समस्त क्षेत्र) शामिल थे।

केन्द्रीय शासन:-

a.     सम्राट शासन का सर्वोच्च अधिकारी था। वह कार्यपालिका, व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका का प्रमुख था।

b.    मौर्य काल में सम्राट की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद् होती थी, जिनमें 12, 16 या 20 सदस्य हुआ करते थे।

c.     इन सदस्यों को 12,000 पण वेतन के रूप में दिए जाते थे। कौटिल्य के अनुसार बड़ी मंत्रिपरिषद् रखना राजन के अपने हित में है और इससे उसकी 'शक्ति' बढ़ती है।

मंत्रिपरिषद्:-

a.     कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में मंत्रियों के लिए 'तीर्थ' शब्द आया है तथा इनकी संख्या 18 बताई गई है।

i.       मंत्रिन् या प्रधानमंत्री

ii.     पुरोहित

iii.  सेनापति

iv.  युवराज- शासक वंश से संबद्ध

v.     दौवारिक- राजदरबार, सीमा तथा अन्य राजकीय द्वारों का संरक्षक

vi.  अंतर्वेदिक- अंतःपुर का अध्यक्ष

vii.समाहर्त्ता- आय का संग्रहकर्ता

viii.सन्निधाता- राजकीय कोष का अध्यक्ष

ix.   प्रशास्ति- कारागारों का अध्यक्ष

x.     प्रदेष्टा- फोजदारी न्यायालय का न्यायाधीश

xi.   नायक-नगर-रक्षा का अध्यक्ष

xii.पौर-नगर का कोतवाल (नागरक)

xiii.व्यावहारिक- प्रमुख न्यायाधीश

xiv.कर्मान्तिक – उद्योगों एवं कारखानों का अध्यक्ष

xv.मंत्रिपरिषद् अध्यक्ष

xvi.दण्डपाल- पुलिस एवं अनुशासन विभाग का अध्यक्ष

xvii.दुर्गपाल- राजकीय दुर्गरक्षकों का अध्यक्ष

xviii.अन्तपाल- सीमावर्ती दुर्गा का रक्षक

·       इनमें पुरोहित, प्रधानमंत्री तथा सेनापति को 48,000 पण; समाहर्त्ता तथा सन्निधाता को 24,000 पण वार्षिक वेतन के रूप में मिलते थे।

प्रांतीय शासन:-

·       प्रांतों का शासन राज-परिवार के ही किसी व्यक्ति द्वारा चलाया जाता था।

·       प्रांतों के शासकों को अशोक के अभिलेखों में कुमार या आर्यपुत्र कहा गया। है।

·       अर्थशास्त्र के अनुसार 'प्रदेष्टा' मण्डल का प्रधान होता था, जिसे अशोक के अभिलेखों में 'प्रादेशिक' कहा गया है।

·       जिले का शासन 'स्थानिक' चलाता था, जो समाहर्ता के नीचे काम करता था।

·       मेगास्थनीज के अनुसार जिले के अधिकारियों को एग्रोनोमोई कहा जाता था।

·       स्थानिक के अधीन गोप होते थे जो एक साथ कई गांवों का शासन चलाते थे।

·       प्रदेष्टि का कार्य स्थानिक, गोप एवं ग्राम अधिकारियों के कार्यों की जांच करना था।

 

नगर शासन:

·       मौर्य काल में प्रांत कई जनपदों में विभक्त थे।

·       इनमें स्थानीय, द्रोणमुख, खारवटिक, तथा संग्रहण चार श्रेणियां थीं।

·       प्रत्येक श्रेणी के अंतर्गत क्रमशः 800, 400, 200, 100 ग्राम होते थे।

·       इन संस्थाओं के प्रमुख 'युक्त' नामक अधिकारी की सहायता से प्रशासन चलाते थे।

·       मौर्य युग में प्रमुख नगरों का प्रशासन नगरपालिकाओं द्वारा चलाया जाता था।

·       मेगास्थनीज ने पाटलिपुत्र के शासन के लिए 30 सदस्यों वाली 6 समितियों का वर्णन किया है।

ग्राम शासन:-

·       ग्राम, प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होती थी।

·       इसका अध्यक्ष ग्रामीण कहलाता था जो वेतनभोगी कर्मचारी नहीं था और ग्रामवासियों द्वारा निर्वाचित होता था।

·       सामान्यतः राज्य ग्राम के शासन में हस्तक्षेप नहीं करते था।

 

सैन्य प्रणाली:-

·       सेना का रख-रखाव 6 समितियों (30 सदस्यीय) द्वारा किया जाता था, जिसका वर्णन मेगास्थनीज ने किया है।

·       सैन्य विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी सेनापति होता था।

·       'नायक' युद्ध में सेना का नेतृत्व करता था, इसे 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था।

न्याय व्यवस्था:-

·       सम्राट साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था।

·       न्यायालय दो भागों में विभाजित था-1 धर्मस्थीय न्यायालय तथा ॥ कण्टकशोधन न्यायालय।

·       धर्मस्थीय न्यायालय का निर्णय धर्मशास्त्र में निपुण तीन धर्मस्थ या व्यावहारिक तथा तीन अमात्य मिलकर करते थे।

·       ये न्यायालय पारिवारिक संबंधों में निर्णय देते थे। इस प्रकार ये एक तरह के दीवानी अदालत थे।

·       कण्टकशोधन न्यायालय का निर्णय तीन प्रवेष्ट्रि तथा तीन अमात्य मिलकर करते थे।

·       राज्य तथा व्यक्ति के बीच विवाद इन न्यायालय के मुख्य विषय थे। इस तरह ये फौजदारी अदालत थे।

·       किन्तु दोनों के बीच भेद इतना स्पष्ट नहीं था। अन्य विषयों के अतिरिक्त चोरी, डाके, लूट के मामले भी धर्मस्थीय न्यायालय में पेश किए जाते थे. जिसे 'साहस' कहा जाता था।

 

गुप्तचर:-

·       राजकर्मचारियों के भ्रष्टाचार एवं उनके शौक पता लगाने के लिए मौर्य साम्राज्य में गुप्तचरों की नियुक्ति होती थी।

·       इस विभाग के प्रमुख को महामात्यापसर्प कहा जाता था।

·       यूनानी लेखकों ने उन्हें निरीक्षक तथा ओवरसियर्स कहा है।

·       कौटिल्य इन्हें 'गुढ़पुरुष' कहता है।

·       अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख है-

a.     संस्था-ये एक ही स्थान पर संस्थाओं में संगठित होकर कापाटिकक्षात्र, उदास्थित, गृहपतिक, वैदेहक (व्यापारी). तापस (सिर मुंडाए या जटाधारी साधु के वेश में काम करते थे।

b.    संचार ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमकर सूचनाएं एकत्र करते थे। वैश्याओं की भी गुप्तचरों के पद पर नियुक्ति की जाती थी। शांति व्यवस्था बनाये रखने हेतु पुलिस की भी व्यवस्था थी, जिसे अर्थशास्त्र में 'रक्षिन' कहा गया है।

 

भूमि तथा राजस्व:-

·       राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि कर था।

·       यह उपज का 1/6 होता था, लेकिन व्यवहारतः यह 25% तक देना होता था।

·       भूमि पर राज्य तथा कृषक दोनों का अधिकार था।

·       भूमिकर को 'भाग' कहा जाता था।

·       इसका संग्रह ध्रुवाधिकरण करता था।

·       राजकीय भूमि से प्राप्त आय को 'सीता' कहा जाता था।

·       कृषकों को सिंचाई कर भी देना होता था।

·       'स्थानिक' तथा 'गोप' नामक पदाधिकारी प्रांतों से कर एकत्र करते थे।

जनगणना:-

·       मौर्य साम्राज्य में प्रतिवर्ष जनगणना होती थी।

·       इस कार्य को 'समाहर्ता' और नागरिक की ओर से 'गोप' नामक राजपुरुष करते थे।

·       इस कार्य के लिए एक अलग विभाग था, जिसे 'मर्दुमशुमारी' कहा जाता था।

मौर्यकालीन सामाजिक स्थिति:-

·       कौटिल्य के अर्थशास्त्र, मेगास्थनीज की इंडिका तथा अशोक के अभिलेखों से मौर्यकालीन समाज के बारे में जानकारी मिलती है।

·       कौटिल्य ने वर्णाश्रम व्यवस्था की रक्षा के लिए इसे राजा के कर्त्तव्य से जोड़ा।

·       दासों की स्थिति संतोषजनक थी। उन्हें संपत्ति रखने तथा बेचने का अधिकार था।

·       विवाह के आठों प्रकार इस समय प्रचलित थे।

·       तलाक तथा पुनर्विवाह का भी प्रचलन था।

·       अर्थशास्त्र में शूद्रों को 'आर्य' कहा गया है तथा 'वार्ता' शूद्रों का वर्णधर्म बताया गया है। इन्हें सेना में भर्ती होने का भी अधिकार था।

·       अपनी पुस्तक में कौटिल्य ने अम्बष्ठ, निषाद, पारशव, वैदेहक, सूत, पुल्कस, वेण, चाण्डाल, श्वपाक रथकार, क्षता आदि वर्णसंकर जातियों का उल्लेख किया है।

·       कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में 9 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है— (1) उदरदास, (2) दण्डप्रणीत. (3) दायागत. (4) लब्ध. (5) क्रीत, (6) गृहेजात, (7) आत्मविक्रय, (8) आहितक तथा (9) ध्वजादृत।

·       मेगस्थनीज ने भारतीय समाज को सात जातियों (भागों) में बांटा (1) दार्शनिक, (2) किसान (3) पशुचारक, (4) कारीगरया शिल्पी, (5) सैनिक, (6) निरीक्षक तथा (7) सभासद।

 

मौर्यकालीन आर्थिक स्थिति:-

·       ऐरियन, स्ट्रैबो, मेगास्थनीज आदि विद्वानों ने उस काल की समस्त भूमि को राजा की भूमि बतलाया है।

·       अर्थशास्त्र में तीन प्रकार की भूमि का उल्लेख है- कृष्ट भूमि (जुती हुई). II अकृष्ट भूमि (बिना जुती हुई) तथा III स्थल भूमि (ऊंची)।

·       मौर्य काल में जिस जमीन में बिना वर्षा के ही अच्छी खेती होती थी. उसे अर्थशास्त्र में 'अदेवमातृक' कहा गया है।

·       सरकारी भूमि को सीताभूमि तथा उस भूमि की देख-रेख करने वाले को सीताध्यक्ष कहा गया है।

·       उस काल में बलि एकप्रकार का धार्मिक कर था।

·       निःशुल्क श्रम व बेगार किए जाने को विष्टि कहा जाता था।

·       भू-स्वामी को 'क्षेत्रक' तथा काश्तकार को 'उपवास' कहा जाता था।

·       नगद रूप में लिए जाने वाले कर को 'हिरण्य' कहा जाता था।

·       अर्थशास्त्र में कृषि, पशुपालन एवं व्यापार को सम्मिलित रूप से 'वार्ता' कहा गया है।

·       सूती वस्त्र के लिए काशी, बंग, पुण्डू, कलिंग एवं मालवा प्रसिद्ध थे।

·       बंग मलमल के लिए, काशी एवं पुण्ड्र रेशम के लिए विख्यात थे। चीन से रेशम का आयात होता था।

·       तक्षशिला, पाटलिपुत्र, कौशाम्बी, काशी, उज्जैन, जावा, सुमात्रा, मिस्र, सीरिया तथा बोर्नियो व्यापार के मुख्य केन्द्र थे।

·       दक्षिण में ताम्रपर्ण, पाण्ड्य एवं केरल - मुक्ता, मणि, हीरे सोना एवं शंख के लिए विख्यात थे।

 

व्यापारी मार्ग:-

1. उत्तर-पश्चिम को पाटलिपुत्र से मिलाने वाला मार्ग जो ताम्रलिप्ति तक जाता था, प्रमुख व्यापारिक मार्ग था। यह 1500 कोस लंबा था।

2. दूसरा मार्ग 'हैमवंतपथ' हिमालय की तरफ जाता था।

3. पश्चिमी तट पर एक मार्ग भड़ौच एवं काठियावाड़ होते हुए लंका तक जाता था। लाल सागर पर 'बनरिस' बंदरगाह की स्थापना भारत और मिस्र के बीच व्यापार को अधिक बढ़ाने के लिए किया गया था। 'सोपारा' पश्चिमी तट पर स्थित प्रमुख बंदरगाह था। कौटिल्य ने समुद्री मार्गों को 'संयानपथ' कहा है।

4. दक्षिण के लिए एक मार्ग श्रावस्ती से गोदावरी के तटवर्ती नगर प्रतिष्ठान तक जाता था।

मौर्यकालीन धार्मिक दशा:-

·       मौर्य काल में वैदिक, बौद्ध, जैन तथा आजीवक धर्म प्रचलित थे।

·       पतंजलि के अनुसार मौर्य काल में देवताओं की मूर्तियों को बेचा जाता था।

·       देवमूर्ति बनाने वाले शिल्पकार को देवताकार कहा जाता था।

·       ब्राह्मणों को राज्य से कर-मुक्त भूमि दान में मिलती थी। इस प्रकार की भूमि ब्रह्मदेय कहलाती थी।

·       अशोक के काल में बौद्ध धर्म राजकीय धर्म था, जबकि अशोक का उत्तराधिकारी सम्प्रति जैन धर्म का संरक्षक था।

स्तूप:-

·       अस्थियों के ऊपर जो समाधियाँ बनाई जाती थीं उसे स्तूप कहा 'जाता था।

·       इसके चार भाग होते हैं-

1. अंड -चबूतरे के ऊपर उल्टे कटोरे जैसी आकृति

2. हर्मिका -स्तूप की चोटी सिरे पर चपटी होती थी जिसके ऊपर धातु पात्र रखा जाता था इसे हर्मिका कहते थे।

3. यष्टि-हर्मिका के बीच में लगी होती थी।

4. छत्र - यष्टि के ऊपर लगे होते हैं। सामान्यतः संख्या में तोन।

5. वेविका स्तूप को चारों ओर बाड़ अथवा दीवार से घेरा जाना था जिसे वेदिका कहते थे।

·       अशोक ने स्तूप निर्माण कला को प्रोत्साहित किया।

·       बौद्ध अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया।

गुहा विहारः अशोक ने गया के निकट बराबर की गुफाओं में निर्मित 'सुदामा की गुफा' तथा 'कर्णचौपड़ की गुफा' आजीवक भिक्षुओं को दान में दी। दशरथ के समय बनी 'लोमश ऋषि गुफा' तथा नागार्जुनी समूह में 'गोपिका गुफा' उल्लेखनीय हैं।

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