Vedic Culture in hindi notes/वैदिक संस्कृति
वैदिक सभ्यता | Vedic Sabhyata Notes in hindi
वैदिक संस्कृति(Vedic Culture)
वैदिक सभ्यता/संस्कृति का परिचय:-
वैदिक संस्कृति का आशय उस संस्कृति से है जिसके अन्दर केवल चारों वेद ही नहीं अपितु ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक एवं उपनिषद भी आते हैं।
·
वैदिक साहित्य की रचना का श्रेय आर्य लोगों को
दिया जाता है यही कारण है कि वेद भारतीय आयों को प्रारंभिक जानकारी के मुख्यः
स्रोत हैं।
· ऋग्वैदिक संहिता के रचनाकाल को पूर्व वैदिक काल तथा शेष अन्य संहिताओं, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषदों के रचनाकाल को उत्तरवैदिक काल माना जाता है।
वेद:
ऋग्वेद:
·
इसमें
कुल 10 मण्डल तथा 1028 सूक्त है जिनमें 10600 मंत्रों का संग्रह है।
·
ऋग्वेद के तीन पाठ हैं:-
·
साकल
- 1017 सूक्त, वाष्कल 56 सूक्त,
वालखिल्य- 11 सूक्त (यह पाठ आठवें मंडल का परिशिष्ट है।)
·
मंडल
2 से 7 मंडल प्राचीनतम हैं एवं ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल की रचना किसी न किसी ऋषि
द्वारा की गई है-
मंडल रचयिता
प्रथम मंडल मधुच्छन्दा दीर्घतमस तथा अंगिरा
द्वितीय महल गुत्समद
भार्गव
तृतीय मंडल विश्वामित्र (गायत्री मंत्र के रचयिता)
चतुर्थ मंडल वामदेव (त्रासदस्यु अजमद तथा पुरमी नामक राजा शामिल
पंचम मंडल अत्रि
षष्ठ मण्डल भारद्वाज
सप्तम मंडल वशिष्ठ
अष्टम मंडल कण्व ऋषि
नवम मंडल पवमान ऑगरस (सभी मंत्र सोम को समर्पित)
दशम
मंडल क्षुद्र सूक्तीय महासुक्तीय (पुरुष सूक्त जिसमें चातुर्य
वर्ण का वर्णन
यजुर्वेद:
·
इसमें
कुल 1990 मंत्र संग्रहित है।
·
इसके
दो भाग हैं— शुक्ल
तथा कृष्ण यजुर्वेद
·
शुक्ल यजुर्वेद में मात्र मंत्रों का संग्रह है
जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्र तथा गद्य काव्य है।
·
शुक्ल यजुर्वेद को वाजसनेई संहिता भी कहा जाता
है। इसी से माध्यानिन्दन तथा काण्व संहिता संबंध है
· कृष्ण यजुर्वेद से काठक, मैत्रायिणी तथा तैतरीय संहिता संबद्ध है।
सामवेद:
·
यह
तीसरा महत्वपूर्ण वेद है।
·
ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के पश्चात इसको ही वेद त्रयी के रूप में मान्यता दी गई
है।
·
सामवेद में मंत्रों की कुल संख्या 1649 है।
·
इनमें
से 75 को छोड़ शेष ऋग्वेद से लिया गया है।
·
यह गायन योग्य वेद है।
·
सामवेद
के प्रथम द्रष्टा वेदव्यास को माना जाता है।
·
इसके तीन पाठ है कौथुम सहिता (गुजरात) जैमिनीय
संहिता (कर्नाटक) तथा राणायनीय संहिता (महाराष्ट्र)।
अथर्ववेद:
·
इसमें
20 काण्ड 731 सूक्त तथा 5987 मंत्र है।
·
कुल
मंत्रों में से 1200 ऋग्वेद से लिए गए हैं।
·
इस
वेद को इसके लेखक के नाम पर अथर्व अंगिरस वेद भी कहा जाता है।
·
इसमें
तंत्र-मंत्र तथा टोने-टोटके, विवाह तथा वाणिज्य से संबंधित मंत्र है।
·
अंग महाजनपद का प्रथम उल्लेख यहीं प्राप्त होता
है।
·
इसकी दो शास्त्रा हैं— शौनक तथा पिप्लादा
भारत में आर्यों का भौगोलिक विस्तार:
·
आर्य
भारत में कई खेपों (टोलियों) में आये। पहली खेप में आने वाले ऋग्वैदिक आर्य थे जो
इस उपमहाद्वीप में 1500 ई.पू. के आस-पास दिखाई देते हैं।
·
उन्हें दास, दस्यु आदि नाम के स्थानीय कबीलों (जनों) से युद्ध करना पड़ा।
·
'दास जनों' का
उल्लेख प्राचीन ईरानी ग्रंथों में भी मिलता है
·
वे पूर्ववर्ती आर्यों की ही एक शाखा थी।
·
ऋग्वेद
में दस्युओं से आयों के युद्ध का विवरण मिलता है।
·
आयों
के पांच कबीले या जन थे, जिन्हें
'पंचजन' कहते थे।
·
"भरत" जन का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद
में मिलता है
·
ऋग्वेद में भरत जन के राजा सुदास द्वारा पुरुष्णो नदी (रावी नदी
के तट पर दस राजाओं के संघ को पराजित करने का उल्लेख है।
·
उस युद्ध को 'दशराज्ञ युद्ध' के रूप में विदित किया गया है।
·
आर्यों
ने दस्युओं को पराजित किया व कुछ को बन्दी बना कर दास बना लिया।
·
मगध, अंग, बंग, कलिंग की विजय के संबंध में कहा जा सकता है कि यहां के अनार्य राजा बहुत
शक्तिशाली थे
·
इन प्रदेशों में अनार्यों की अधिकता के कारण ही
यहां कालान्तर में बौद्ध और जैन धर्म को पनपने का अवसर मिला।
·
दक्षिण
में कभी भी आर्यीकरण (Aryanisation) नहीं हो सका, इसलिये उस क्षेत्र में “द्रविड़ संस्कृति" अक्षुण्ण रही।
ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.):
·
सिन्धु
सभ्यता के विपरीत ऋगवैदिक सभ्यता मूलतः ग्रामीण थी।
·
इस सभ्यता के संस्थापक आर्य थे इसलिए इसे आर्य
सभ्यता भी कहा जाता है।
·
आर्य मुख्यतः पशुचारण थे एवं कृषि उनका गौण पेशा
था।
·
आर्यों की आरम्भिक इतिहास की जानकारी का मुख्य स्रोत
ऋग्वेद है।
राजनीतिक दशा:
·
राजनीतिक
संगठन: डॉ. मुखर्जी ने
ऋग्वैदिक भारत के शासन विधान को निम्नलिखित आरोही क्रम में प्रस्तुत किया है
शासन की इकाई मुखिया
a. गृह कुलप या
पिता
b. ग्राम या गांव ग्रामणी
c. विश या कबीला या कैण्टन (Canton )---विषयपति
d. जन राजा
·
उस
समय पैतृक राजतंत्र ही सामान्य शासन प्रबंध के रूप में प्रचलित था।
·
गणपति के अधीन 'गण' का भी उल्लेख मिलता है।
·
ऋग्वैदिक युग में उन गणतंत्रों के बीज मौजूद थे
जो बौद्ध काल में देखने को मिले।
·
राजा
का पद सामान्यतः पैतृक था. मगर ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि प्रजागण राजवंश या
सामंतों में से किसी भी उपयुक्त व्यक्ति को राजा चुन लेते थे।
·
ऋग्वेद में राजा को 'गोपजनस्य' (प्रजा का
रक्षक) और 'पुराभेत्ता' (नगरों पर विजय
पाने वाला) कहा गया है।
·
राजा
का पद दैवी
नहीं समझा जाता था।
·
राजा, केन्द्रीय शासन अनेक मंत्रियों, सेनापति, पुरोहित तथा ग्रामणी आदि की सहायता से
चलाता था।
·
सर्वप्रमुख पुरोहित या पुरोधा था।
·
पुरोहित
का पद यह वंशानुगत था।
·
राजदरबार में सेनानी सेना का नेता तथा ग्रामणी
ग्रामों का प्रतिनिधि था।
·
राजा के व्यक्तिगत कर्मचारियों को 'उपस्ति' और 'इभ्य' कहते थे।
·
अन्य
पदाधिकारी सूत रथकार और कमर थे जिन्हें रत्नी कहा जाता था।
·
राजा
समेत कुल बारह रत्नी थे जो राज्याभिषेक के अवसर पर उपस्थित होते थे।
·
यह एक परिवार आधारित सभा थी।
·
इसमें
भाग लेने वाली महिलाओं को सभावती कहा जाता था।
·
उत्तर
वैदिक काल में इसमें महिलाओं की भागीदारी बंद कर दी गई थी।
·
इसमें
ग्रामीण मामलों पर चर्चा की जाती थी और यह राजनैतिक एवं प्रशासनिक कार्यों के
साथ-साथ न्यायिक कार्य भी करती थी।
·
समिति
का महत्त्व ऋग्वैदिक काल के अंतिम चरण में स्थापित हुआ था।
·
इसमें राजनीतिक मुद्दों पर विचार किया जाता था।
·
राजा का निर्वाचन एवं पुनर्निर्वाचन समिति
द्वारा किया जाता था।
·
समिति के अध्यक्ष को 'ईशान्' कहते थे।
·
अथर्ववेद
में सभा एवं समिति को प्रजापति की दुहिताएं (पुत्रियाँ) कहा गया है।
·
सभा एवं समिति के बीच एकमात्र अंतर यह था कि सभा, न्यायिक कार्य भी संपन्न करती थी जबकि
समिति के साथ ऐसा नहीं था।
·
ये
मान्य विचार है कि सभा और समिति प्रजा द्वारा निर्वाचित दो परिषदें थीं।
·
विदथ, 'विद्ध' जन्मदात्री
संस्था थी जिससे 'सभा', 'समिति'
और सेना की उत्पत्ति हुई।
·
यह आर्यों की प्राचीनतम जनसभा थी।
·
यह
आर्थिक, सैन्य, धार्मिक एवं
सामाजिक सभी तरह के कार्य करती थी।
·
'विदथ'
में ही उपज का वितरण होता था।
·
इनमें
महिलायें भी भाग लेती थी।
e. कानून या रीति के
लिए उपयुक्त शब्द ऋग्वेद में "धर्मन " है।
f. 'उग्र' तथा 'जीव-गृम' (जीवित पकड़ना) शब्दों को पुलिस
कर्मचारियों के पदों का नाम समझा गया है।
g. झगड़ों के निर्णायक
को "मध्यमशी" (मध्य में पड़ने वाला) कहा जाता था।
h. गांव के न्यायाधीश
को तैत्तिरीय संहिता में 'ग्राम्यवादिन'
कहा गया है।
i. उस समय ऑरडियल प्रथा (गर्म कुल्हाड़ी, अग्नि, पानी आदि से
परीक्षा लेना) भी प्रचलित थी।
j. वैदिक कालीन न्यायाधीशों को प्रश्नविनाक कहा जाता था।
सामाजिक जीवन:
·
आयों
ने खानाबदोशी जीवन छोड़कर पारिवारिक जीवन आरम्भ कर दिया था।
·
आर्य समाज पितृसतात्मक था 'पिता' परिवार का
मुखिया होता था व पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं से कामना की जाती थी।
·
संयुक्त परिवार का प्रचलन था।
a. स्त्रियों को समाज में आदर व महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त
था।
b. पर्दा प्रथा व बाल विवाह प्रथा का प्रचलन नहीं था।
c. दहेज की मांग भी नहीं थी। अन्तर्जातीय विवाह भी प्रचलित थे।
d. विधवा विवाह का प्रचलन था।
e. स्त्रियाँ पति के साथ यज्ञ में भाग लेती थीं।
f. एक ही विवाह किया जाता था मगर राजा व अमीर लोग अधिक
स्त्रियां भी रखते थे।
g. नारी को शिक्षा प्राप्त करने, नृत्य संगीत आदि की स्वतंत्रता थी।
h. विवाह 16-17 वर्ष की उम्र में किया जाता था।
i. समाज में नियोग-प्रथा (पुत्रविहीन विधवा द्वारा पुत्र
प्राप्ति हेतु देवर से यौन संबंध स्थापित करना) का प्रचलन था।
j. अंतर्जातीय विवाह होते थे, किंतु आर्यवर्ण का दासवर्ण के साथ विवाह निषिद्ध था।
k. कन्या के विदाई के समय उपहार एवं द्रव्य दिये जाते थे, जिसे 'वहतु' कहते थे।
·
आर्य
मूलतः शाकाहारी थे, विशेष
अवसरों पर वे मांस का भी प्रयोग करते थे।
·
गाय को 'अघन्या' (न मारने योग्य) कहा जाता था।
·
आर्य मुख्यतः दूध व दूध से बनी वस्तुओं का सेवन
किया करते थे।
·
आर्य
मुख्यतः तीन प्रकार के वस्त्र धारण करते थे:-
i. नीवी: कमर
के नीचे पहना जाने वाला वस्त्र
ii. वासः
कमर के वस्त्र ऊपर पहना जाने वाला।
iii. अधिवासः
चादर या ओढ़नी ।
·
वे
सूती तथा ऊनी वस्त्रों, धोती,
कुर्ता, बनियान, पगड़ी
आदि का प्रयोग करते थे।
·
सोने
और चांदी आदि के आभूषणों का भी प्रयोग करते थे।
·
शिकार
खेलना, रथदौड़, नृत्य,
संगीत, जानवरों की लड़ाई आदि से वे अपना
मनोरंजन करते थे।
·
नैतिकता
और बुद्धि का विकास व आचरण की शुद्धता हेतु धार्मिक शिक्षा उन्हें मनोरंजन के रूप
में दी जाती थी।
·
वाद-विवाद प्रतियोगिता भी होती थी।
·
संभवतः
कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था की नींव पड़ गई थी।
·
ऋग्वेद
के दशम् मंडल के पुरुषसुक्त में चतुर्वणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है—"ब्रह्मा के मुख से
ब्राह्मण की तथा पैरों से शुद्र की उत्पत्ति हुई है।"
·
यह
वर्णव्यवस्था का प्राचीनतम उल्लेख है।
आर्थिक जीवन:
·
आयों
ने पशुपालन और कृषि को अपना मुख्य व्यवसाय बना लिया था।
·
ये
मुख्यतः गेहूं तथा जौ उगाते थे।
·
ऋग्वैदिक आर्य चावल से परिचित नहीं थे।
·
ऋग्वेद में कृषि सम्बन्धी प्रक्रिया से
सम्बन्धित उल्लेख 'चतुर्थमण्डल'
में मिलता है।
·
पशुपालन
उनका मुख्य व्यवसाय था तथा वे प्रायः गाय, बैल, भैंस, घोड़े, बकरी आदि पालते थे।
·
आर्य, गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप में करते थे।
·
युद्ध
का प्रमुख कारण गायों की गवेषणा अर्थात् 'गविष्टि' था।
· आर्य बाघ, बत्तख, गिद्ध से परिचित नहीं थे।
·
व्यापार-वाणिज्य 'पणि' वर्ग के हाथों
में था।
·
पणि अपनी कृपणता के लिए प्रसिद्ध थे।
·
उन्हें 'वेकनाट' (सूदखोर) कहा गया है।
·
क्रय-विक्रय हेतु विनिमय प्रणाली अस्तित्व में आ
चुकी थी।
·
विनिमय
के माध्यम के रूप में 'निष्क'
का उल्लेख हुआ है।
·
बढ़ई
(तक्षक) संभवतः शिल्पियों का मुखिया होता था। स्वर्णकार, चर्मकार, वाय
(जुलाहे). कर्मा (धातु कर्म करने वाले) आदि भी प्रमुख थे।
·
ऋग्वैदिक
आर्य लोहे से परिचित नहीं थे।
·
ऋग्वेद में कपास का कोई उल्लेख नहीं है।
·
कताई
बुनाई का कार्य स्त्री-पुरुष दोनों करते थे।
·
अयस
का प्रयोग ऋग्वेद में तांबे एवं कांसे के लिए किया गया था।
धार्मिक जीवन:
·
ऋग्वैदिक
ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की प्रार्थना की. उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें
संपूर्ण गुणों का आरोपण कर दिया। मैक्समूलर ने इस प्रवृत्ति को
"हेनोथीम" कहा है।
·
ऋग्वैदिक
देवताओं का वर्गीकरण तीन भागों में किया गया है-
1. पृथ्वी के देवता — अग्नि, सोम, बृहस्पति, सरस्वती,
आपानपात।
2. अंतरिक्ष के देवता इन्द्र, रुद्र, वायु-वात. पर्जन्य, आप, यम, प्रजापति, अदिति, मातरिश्वन आदि।
3. द्युस्थान (आकाश) के देवता- द्यौस, वरुण, मित्र, सूर्य, सवित्. पूषन, विष्णु,
आदित्य, ऊषा, अश्विन
आदि।
·
इंद्र.
विश्व का स्वामी था। वरुण, जगत
का नियन्ता, देवताओं का पोषक तथा ऋतू का नियामक था।
·
रुद्र के सिवाय अन्य देवताओं का स्वरूप मंगलकारी
था।
·
कुछ देवियों की भी चर्चा है, जैसे वाग्देवी सरस्वती, जंगल की देवी 'आख्यानी' तथा
सिंधु नदी को भी देवी की मान्यता मिली।
·
देवपूजा के साथ पितृपूजा का भी उल्लेख है।
·
देवताओं
की उपासना यज्ञों द्वारा की जाती थी।
·
यज्ञ में मनुष्य बलि का कोई उल्लेख नहीं है।
·
मंदिर
या मूर्ति पूजा का भी कोई उल्लेख नहीं है।
·
आर्य
पुनर्जन्म को मानते थे।
·
स्वर्ग
की भी कल्पना की गई है।
·
दुष्कर्मियों
के दंड हेतु नरक की भी संकल्पना है।
ऋग्वैदिक कालीन नदियां:
प्राचीन नाम आधुनिक नाम
कुमु कुर्रम
दृषद्वति घरघर
गोमती गोमल
कुभा काबुल
वितस्ता झेलम
अस्किनी
चिनाव
सुवस्तु स्वात
सिंधु सिन्ध
सुषोम सोहन
पुरुष्णी रावी
शुतुद्रि सतलुज
विपाशा व्यास
मरुवृधा मरुवर्मन
सदानीरा
गंडक
उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.)
·
इस काल में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण
ग्रंथ, आरण्यक तथा उपनिषद् रचे गये।
·
इस
काल में आर्य सभ्यता पूर्व और दक्षिण की ओर बढ़ने लगी।
·
चित्रित
धूसर मृद्भाण्ड का प्रयोग एवं लौह हथियारों का प्रयोग इस काल की प्रमुख विशेषता
थी।
राजनौतिक दशा
·
आर्य
सभ्यता का विस्तार होता जा रहा था, तथा विशाल राज्यों की स्थापना होने लगी थी।
·
उत्तरवैदिक
काल में कुरु और
पांचाल संयुक्त राज्य थे, जिनकी
राजधानी आसंदीवत् तथा काम्पिल्य थी।
·
अब राजा के अधिकारों में वृद्धि हुई। राजा देवता का प्रतीक
समझा जाने लगा।
·
सभा और समिति नामक संस्थाएं इस समय भी राजा पर
अंकुश लगाती थी।
·
राजा के निर्वाचन और निष्कासन में जनता का हाथ होता था।
·
ऐतरेय
ब्राह्मण में सर्वप्रथम राजा की दैवी उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत मिलता है।
·
रत्नियों का प्रशासन में अत्यंत महत्त्वपूर्ण
स्थान था।
·
वाजपेय यज्ञ के समय राजा स्वयं रत्नियों के घर जाता था तथा उन्हें 'रत्नछवि' प्रदान
करता था।
·
शतपथ
ब्राह्मण में बारह रत्नियों का उल्लेख है।
·
राजा
का पद वंशानुगत हो गया था।
·
उत्तरवैदिक
काल में सर्वप्रथम करों की नियमित व्यवस्था का उल्लेख है।
·
'बलीकृत' शब्द
यह इंगित करता है कि कर का बोझ वैश्य वर्ग के लोग वहन करते थे।
·
आय का सोलहवां भाग कर के रूप में लिया जाता था।
·
कर की अदायगी अन्न एवं पशु दोनों के रूप में की
जाती थी।
सामाजिक जीवन पारिवारिक जीवन:
·
इस काल में सर्वप्रथम कुल का उल्लेख मिलता है।
·
परिवार
संयुक्त एवं पितृसत्तात्मक था।
·
पिता के अधिकारों में वृद्धि हुई।
·
वह
पुत्र को उत्तराधिकार से वंचित कर सकता था।
·
जाति
आधारित वर्ण व्यवस्था का उदय हुआ।
·
इस काल में स्पष्ट रूप से समाज का चार वर्णों
में विभाजन हो गया ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यद्यपि अस्पृश्यता का उदय
नहीं हुआ था
·
यज्ञोपवीत संस्कार का अधिकार शूद्रों को नहीं
था।
·
शुद्र
को 'अन्यस्यप्रेस्य' अर्थात्
तीनों वर्णों का सेवक कहा गया है।
·
शूद्र, संभवतः दर्शन के अध्ययन से वंचित नहीं थे।
·
इस
काल में कुछ क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के समकक्ष स्थान प्राप्त कर लिया। जैसे जनक, जाबालि अश्वपति, प्रवाहन
आदि।
·
इस काल में सर्वप्रथम, 'गोत्र व्यवस्था' प्रचलन
में आयी।
·
एक
ही गोत्र के लोगों का परस्पर विवाह प्रतिबंधित था।
·
इस
काल में जाति-परिवर्तन करना कठिन हो गया था।
स्त्रियों की दशाः
·
ऋग्वैदिक
काल की तुलना में स्त्रियों की दशा में उत्तर वैदिक काल में गिरावट आई।
·
स्त्रियों का उपनयन संस्कार बंद हो गया तथा
पैतृक संपत्ति के अधिकार में कमी आई।
·
बाल-विवाह, पर्दा प्रथा, सती-प्रथा का उल्लेख नहीं है. किन्तु
अंतरवर्णीय विवाह, बहुविवाह, विधवा-विवाह,
नियोग-प्रथा का प्रचलन था।
·
इससे
राजनैतिक एवं शैक्षिक अधिकारों में भी कमी आई।
·
शतपथ ब्राह्मण में गार्गी, गंधर्व गृहीता, मैत्रेयी
आदि विदुषियों का उल्लेख है।
आश्रम व्यवस्थाः
·
इस
काल में तीन आश्रमों का स्पष्ट उल्लेख है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ।
·
चौथा
आश्रम संन्यास को उ. वैदिक काल में महत्त्व नहीं मिल पाया था
·
गृहस्थ
आश्रम की महत्ता व्यापक थी।
·
सर्वप्रथम 'जाबालोपनिषद्' में
चारों आश्रमों का उल्लेख मिलता है।
आर्थिक दशा:
·
इस
काल में आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि था।
·
शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओ— जुताई, बुवाई कटाई तथा मड़ाई का उल्लेख किया है।
·
काठक
संहिता में 24 बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हल का उल्लेख मिलता है।
·
उत्तर
वैदिक काल के लोग चार प्रकार मृदभाण्डों से परिचित थे काले व लाल मृदभाण्ड, काले रंग के, चिलित
धूसर मृदभाण्ड तथा लाल रंग के।
·
इस
काल में लाल मृदभाण्ड अत्यधिक प्रचलित थे तथा चित्रित धूसर मृदभाण्ड इस युग की
विशेषता थी।
·
शतपथ
ब्राह्मण में महाजनी प्रथा का प्रथम बार उल्लेख हुआ तथा सूदखोर को कुसीदिन कहा
जाता था।
·
उत्तर वैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन हो चुका
था परन्तु सामान्य लेन-देन वस्तु विनिमय इकाइयां थीं।
·
बाट
की मूलभूत इकाई कृष्णल थी। रक्तिका तथा गुंजा भी तौल की इकाई थी।
·
निष्क
संभवत: 320 रत्ती का एक स्वर्ण ढेला था।
·
शतपथ
ब्राह्मण की 'जल प्रलय'
की कथा के आधार पर विद्वानों ने सिद्ध किया है कि उन दिनों भारत का
व्यापार "बेबीलोन" के साथ भी था।
धार्मिक जीवन:
·
कुछ
ऋग्वैदिक देवताओं का महत्त्व घट गया और नवीन देवताओं की प्रतिष्ठा हुई। जैसे वरुण, इंद्र आदि का स्थान प्रजापति, विष्णु एवं रुद्र- शिव ने ले लिया।
·
अप्सरा, गंधर्व, नाग आदि की भी दैव रूप में कल्पना की गई।
·
ऋग्वैदिक कालीन रुद्र, जो पशुओं के देवता थे. इस काल में शिव के
रूप में प्रतिष्ठित हो गये और मंगलकारी देवता माने जाने लगे।
·
वरुण
का स्थान विष्णु ने ले लिया और उन्हें देवताओं में अधिक सम्मानीय और श्रेष्ठ माना
जाने लगा।
·
उत्तर-वैदिक
कालीन संस्कृति का मूल यज्ञ था।
·
इस
काल में यज्ञों की संख्या में वृद्धि के साथ पुरोहितों की संख्या में भी वृद्धि हो
गयी थी।
·
ऋग्वेद में सात प्रकार के पुरोहितों का उल्लेख
है; उत्तरवैदिक काल में यह संख्या सत्रह हो
गयी।
·
विवाह
को पूर्व वैदिक काल तक एक आवश्यक संस्कार माना जाता था तथा अविवाहित पुरुष को यज्ञ
का अधिकार नहीं था।
·
इस
समय यज्ञ में पशु बलि दी जाने लगी।
·
अश्वमेध यज्ञ में अश्व की तथा पुरुषमेध यज्ञ में
पुरुष की बलि का विधान था।
·
यज्ञ और कर्मकांड अधिक जटिल और खर्चीले हो गये
थे।
·
पूषण शूद्रों के देवता माने गये।
·
सर्वप्रथम
बृहदारण्यक उपनिषद में ब्रह्मा का पूर्ण और निश्चित वर्णन मिलता है।
·
इस काल में ही बहुदेववाद, मूर्तिपूजा, वासुदेव
संप्रदाय एवं षड्दर्शनों की अवधारणा उत्पन्न हुई।
·
उपनिषदों में 'ब्रह्म' को एकमात्र सत्ता स्वीकार किया
गया है। उसे निर्विकार, अद्वैत एवं निरपेक्ष बताया गया है।
·
मोक्ष
प्राप्ति के लिए संन्यास को आवश्यक माना जाने लगा।
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