ncert class-7 polity chapter-5 औरतों ने बदली दुनिया notes in hindi pdf
Hi friends आप सब कैसे है। आशा करता हु की आप सब अच्छे होंगे। आज हम सब hindi में NCERT Class-7 ( Chapter-5) (औरतों ने बदली दुनिया) Notes and summary in Hindi me आगे पढ़ेंगे और एक अच्छे से notes तैयार करेंगे जो आने वाले आगामी किसी भी प्रकार की प्रतियोगी परीक्षाओं में हेल्प करेगी।
ncert class-7 polity chapter-5 औरतों ने बदली दुनिया notes in hindi
अध्याय-५
औरतों ने बदली दुनिया
कम अवसर और कठोर अपेक्षाएँ
·
कक्षा के अधिकांश बच्चों ने
नर्स के लिए महिलाओं के और पायलट के रूप में पुरुषों के चित्र बनाए। उन्हें लगता है
कि घर के बाहर भी महिलाएँ कुछ खास तरह के काम ही अच्छी तरह कर सकती हैं। बहुत से लोग
मानते हैं कि महिलाएँ अच्छी नसें हो सकती हैं, क्योंकि
ये अधिक सहनशील और विनम्र होती हैं।
·
माना जाता है कि विज्ञान के
लिए तकनीकी दिमाग की जरूरत होती है और लड़कियाँ और महिलाएँ तकनीकी कार्य करने में सक्षम
नहीं होती।
·
अधिकांश परिवारों में स्कूली
शिक्षा पूरी हो जाने के बाद लड़कियों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाता है. कि वे
शादी को अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य मान लें।
·
हम ऐसे समाज में रह रहे हैं,
जहाँ सभी बच्चों को अपने चारों ओर की दुनिया के दबावों का सामना करना
पड़ता है। कभी यह दबाव बड़ों की अपेक्षाओं के रूप में होता है, तो कभी यह हमारे अपने ही मित्रों के गलत . तरीके से चिढ़ाने के कारण पैदा हो
जाता है।
·
लड़कों पर ऐसी नौकरी
प्राप्त करने के लिए दबाव होता है, जिसमें उन्हें
अधिक वेतन मिले।
रूढ़ियों को तोड़ा है:-
·
झारखंड के एक गरीब आदिवासी
परिवार की 27 वर्षीय महिला लक्ष्मी लाकरा उत्तरी रेलवे की पहली महिला इंजन चालक है।
a.
लक्ष्मी के माता-पिता पढ़े-लिखे
नहीं हैं, लक्ष्मी
की शिक्षा एक सरकारी स्कूल में हुई।
b.
स्कूल में पढ़ने के साथ-साथ
लक्ष्मी घर के कामों व अन्य जिम्मेदारियों में हाथ भी बँटाती रही।
c.
उसने मन लगाकर और मेहनत से
पढ़ाई की और स्कूल पूरा करके इलेक्ट्रॉनिक्स में डिप्लोमा अर्जित किया।
d.
वह रेलवे बोर्ड की परीक्षा
में बैठी और पहली ही कोशिश में उत्तीर्ण हो गई।
e.
लक्ष्मी कहती है,
"मुझे चुनौतियों से खेलना पसंद है और जैसे ही कोई यह कहता है कि
फलाँ काम लड़कियों के लिए नहीं है,
मैं उसे करके रहती हूँ।"
f.
लक्ष्मी के जीवन में ऐसा करने
के अनेक अवसर आए। जब वह इलेक्ट्रॉनिक्स करना चाहती थी,
जब उसने पॉलीटेक्नीक में मोटर साइकिल चलाई और जब उसने तय किया कि वह
इंजन ड्राइवर बनेगी।
उसका
दृष्टिकोण सीधा-सादा है-जब तक मुझे मजा आ रहा है और मैं किसी को नुकसान नहीं पहुँचा
रही और मैं अच्छे से रह पा रही हूँ और अपने माता-पिता की मदद कर पा रही हूँ तो मैं
अपने तरीके से क्यों न जीऊँ?"
परिवर्तन के लिए सीखना:-
·
अतीत में अधिकांश बच्चे वही
काम सीखते थे, जो उनके परिवार में होता था या उनके बुजुर्ग
करते थे।
·
लड़कियों की स्थिति और भी
खराब थी। लड़कियों को अक्षर तक सीखने की अनुमति नहीं थी।
· 19वीं शताब्दी में (लगभग 200 वर्ष पूर्व) विद्यालय
अधिक प्रचलन में आ गए और वे समाज, जिन्होंने स्वयं कभी पढ़ना-लिखना
नहीं सीखा था, अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे। तब भी लड़कियों
की शिक्षा को लेकर बहुत विरोध हुआ।
·
इसके बावजूद,
बहुत-सी स्त्रियों और पुरुषों ने बालिकाओं के लिए स्कूल खोलने के प्रयत्न
किए। स्त्रियों ने पढ़ना-लिखना सीखने के लिए संघर्ष किया।
राससुंदरी देवी (1800-1890):-
·
राससुंदरी देवी दो सौ वर्ष
पूर्व पश्चिमी बंगाल में पैदा हुई थीं।
·
साठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने
बांग्ला भाषा में अपनी आत्मकथा आमार जीवोन
लिखी।
·
पुस्तक आमार जीवोन किसी भारतीय महिला द्वारा लिखित पहली आत्मकथा है।
·
राससुंदरी देवी एक धनवान जमींदार
परिवार की गृहिणी थीं।
·
उस समय लोगों का विश्वास था
कि यदि लड़की लिखती-पढ़ती है, तो वह पति के लिए दुर्भाग्य
लाती है और विधवा हो जाती है। इसके बावजूद उन्होंने अपनी शादी के बहुत समय बाद स्वयं
ही छुप-छुपकर लिखना पढ़ना सीखा।
·
रामसुंदरी देवी के अक्षर ज्ञान
ने उन्हें चैतन्य भागवत पढ़ने का अवसर दिया।
·
स्वयं अपने लेखन से उन्होंने
संसार को उस समय की स्त्रियों के जीवन के बारे में जानने का एक अवसर दिया।
·
राससुंदरी देवी ने अपने दैनन्दिन
जीवन के अनुभवों को विस्तार से लिखा है।
·
ऐसे भी दिन होते थे,
जब उन्हें दिनभर में क्षण-भर का भी विश्राम नहीं मिलता था इतना समय भी
नहीं कि वे जरा बैठकर कुछ खा
ही लें।
रमाबाई (1858-1922):-
·
रमाबाई (1858-1922)महिला शिक्षा
की ये योद्धा स्वयं कभी स्कूल नहीं गई, पर अपने माता-पिता
से उन्होंने पढ़ना-लिखना सीख लिया। उन्हें पंडिता की उपाधि दी गई, क्योंकि वे संस्कृत पढ़ना-लिखना जानती थीं जो उस समय की औरतों के लिए बहुत
बड़ी उपलब्धि थी।
·
उन्होंने 1898 में,
पुणे के पास खेड़गाँव में एक मिशन स्थापित किया, जहाँ विधवा स्त्रियों और गरीब औरतों को पढ़ने-लिखने तथा स्वतंत्र होने की शिक्षा
दी जाती थी।
·
उन्हें लकड़ी से चीजें बनाने,
छापाखाना चलाने जैसी कुशलताएँ भी सिखाई जाती थीं जो वर्तमान में भी लड़कियों
को कम हो सिखाई जाती हैं।
·
रमाबाई का मिशन आज भी सक्रिय
है।
नोट-शिक्षा
प्राप्त करके कुछ महिलाओं ने समाज में स्त्रियों की स्थिति के बारे में प्रश्न उठाए
। उन्होंने असमानता के अपने अनुभवों का वर्णन करते हुए कहानियाँ,
पत्र और आत्मकथाएँ लियाँ। अपने लेखों में उन्होंने स्त्री और पुरुष दोनों
के लिए सोचने और जीने के नए-नए तरीकों की कल्पना की
।
रुकैया सखावत हुसैन और लेडीलैंड का उनका सपना:-
·
रुकैया सखावत हुसैन
(1880-1932) एक धनी परिवार में पैदा हुई थीं, जिसके पास
बहुत ज़मीन थी।
·
उन्हें उर्दू पढ़ना और लिखना
आता था,
परंतु उन्हें बांग्ला और अंग्रेज़ी सीखने से रोका गया।
·
उस समय अंग्रेजी को ऐसी भाषा
के रूप में देखा जाता था, जो लड़कियों के सामने नए विचार
रखती थी। जिन्हें लोग लड़कियों के लिए ठीक नहीं मानते थे।
·
रुकैया ने अपने बड़े भाई और
बहन के सहयोग से बांग्ला और अंग्रेजी पढ़ना और लिखना सीखा।
·
1905 में जब वे केवल पच्चीस
वर्ष की थीं अंग्रेजी भाषा में उन्होंने एक उल्लेखनीय कहानी लिखी,
जिसका शीर्षक था सुल्ताना का स्वप्न ।
a.
कहानी में सुल्ताना नामक एक
स्त्री की कल्पना की गई थी, जो लेडीलैंड नाम की एक जगह
पहुँचती है।
b.
लेडीलैंड ऐसा स्थान था,
जहाँ पर स्त्रियों को पढ़ने, काम करने और आविष्कार
करने की स्वतंत्रता थी।
c.
इस कहानी में महिलाएँ बादलों
से होने वाली वर्षा को रोकने के उपाय खोजती हैं और हवाई कारें चलाती हैं।
d.
लेडीलैंड में पुरुषों की आक्रामक
बंदूकें और युद्ध के अन्य अस्त्र-शस्त्र, स्त्रियों
की बौद्धिक शक्ति से हरा दिए जाते हैं और पुरुष एक अलग-थलग स्थान में भेज दिए जाते
हैं।
e.
सुल्ताना,
लेडीलैंड में अपनी बहन साराह के साथ यात्रा पर जाती है, तभी उसकी आँख खुल जाती है और उसे पता चलता है कि वह तो केवल स्वप्न देख रही
थी।
·
शिक्षा ने रुकैया का जीवन
बदल दिया। रुकैया केवल स्वयं शिक्षित होकर संतुष्ट नहीं हुईं। उनकी शिक्षा ने उन्हें
स्वप्न देखने और लिखने की ही शक्ति नहीं दी, वरन् उससे
भी अधिक करने की शक्ति दी।
·
1910 में उन्होंने कोलकाता
में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला जो आज भी कार्य कर रहा है।
नोट-राससुंदरी
देवी और रुकैया हुसैन जिन्हें पढ़ने-लिखने की अनुमति नहीं मिली थी,
की स्थिति के विपरीत वर्तमान समय में भारत में बड़ी संख्या में लड़कियाँ
स्कूल जा रही हैं। इसके बावजूद भी बहुत-सी लड़कियाँ गरीबी, शिक्षण
की सुविधाओं के अभाव और भेदभाव के कारण स्कूल जाना छोड़ देती हैं। सभी समाजों और वर्गों
की पृष्ठभूमि वाले बच्चों को शिक्षण की समान सुविधाएँ प्रदान करना, विशेषकर लड़कियों को, आज भी भारत में एक चुनौती है।
प्रश्न- उच्च प्राथमिक
स्तर पर कितने बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं?
प्रश्न- शिक्षा के किस
स्तर पर आपको सर्वाधिक बच्चे स्कूल छोड़ते हुए दिखाई देते हैं?
प्रश्न- आपके विचार में
अन्य सभी वर्गों की तुलना में, आदिवासी लड़के-लड़कियों की विद्यालय
छोड़ने की दर अधिक क्यों है?
वर्तमान समय में शिक्षा और विद्यालय:-
·
आज लड़के और लड़कियाँ विशाल
संख्या में विद्यालय जा रहे हैं, फिर भी हम देखते हैं कि
लड़कों और लड़कियों की शिक्षा में अंतर है।
·
1961 की जनगणना के अनुसार
सब लड़कों और पुरुषों (7 वर्ष एवं उससे अधिक आयु के) का 40 प्रतिशत शिक्षित था (अर्थात्
वे कम-से-कम अपना नाम लिख सकते थे)। इसकी तुलना में लड़कियों तथा स्त्रियों का केवल
15 प्रतिशत भाग शिक्षित था।
·
2011 की जनगणना के अनुसार
लड़कों व पुरुषों की यह संख्या बढ़कर 82 प्रतिशत हो गई है और शिक्षित लड़कियों तथा
स्त्रियों की संख्या 65 प्रतिशत।
·
'सब लड़कियों की तुलना में अनुसूचित
जाति और अनुसूचित जनजाति की लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर अधिक है।
·
वर्ष 2011 की जनगणना से यह
भी पता चलता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति लड़कियों की अपेक्षा मुस्लिम लड़कियों
की प्राथमिक शिक्षा पूरी करने की संभावना और भी कम रहती है।
·
मुस्लिम लड़कियाँ स्कूल में
लगभग 3 वर्ष रह पाती हैं, जबकि अन्य समुदायों की लड़कियाँ
स्कूल में 4 वर्ष का समय बिता पा रही है।
·
दलित,
आदिवासी और मुस्लिम वर्ग के बच्चों के स्कूल छोड़ देने के अनेक कारण
हैं। देश के अनेक भागों में विशेषकर ग्रामीण और गरीब क्षेत्रों में नियमित रूप से पढ़ाने
के लिए न उचित स्कूल हैं, न ही शिक्षक। यदि विद्यालय घर के पास
न हो और लाने-ले जाने के लिए किसी साधन जैसे बस या वैन आदि की व्यवस्था न हो तो अभिभावक
लड़कियों को स्कूल नहीं भेजना चाहते।
·
कुछ परिवार अत्यंत निर्धन
होते हैं और अपने सब बच्चों को पढ़ाने का खर्चा नहीं उठा पाते हैं। ऐसी स्थिति में
लड़कों को प्राथमिकता मिल सकती है।
महिला आंदोलन:-
·
अब महिलाओं और लड़कियों को
पढ़ने का और स्कूल जाने का अधिकार है। अन्य क्षेत्र भी हैं- जैसे कानूनी सुधार,
हिंसा और स्वास्थ्य, जहाँ लड़कियों और महिलाओं
की स्थिति बेहतर हुई है।
·
ये परिवर्तन अपने-आप नहीं
आए हैं। औरतों ने व्यक्तिगत स्तर पर और आपस में मिल कर इन परिवर्तनों के लिए संघर्ष
किए हैं। इन संघर्षो को महिला आंदोलन कहा जाता है।
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देश के विभिन्न भागों से कई
औरतें और कई महिला संगठन इस आंदोलन के हिस्से हैं। कई पुरुष भी महिला आंदोलन का समर्थन
करते हैं। इस आंदोलन में जुटे लोगों की मेहनत, निष्ठा और
उनकी विशेषताएँ इसे एक बहुत ही जीवंत आंदोलन बनाती हैं। इसमें चेतना जागृत करने,
भेदभावों का मुकाबला करने और न्याय हासिल करने के लिए भिन्न-भिन्न रणनीतियों
का उपयोग किया गया है।
अभियान:-
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भेदभाव और हिंसा के विरोध
में अभियान चलाना महिला आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। अभियानों के फलस्वरूप
नए कानून भी बने हैं।
·
सन् 2006 में एक कानून बना
है,
जिससे घर के अंदर शारीरिक और मानसिक हिंसा को भोग रही औरतों को कानूनी
सुरक्षा दी जा सके।
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1997 में सर्वोच्च न्यायालय
ने कार्य के स्थान पर और शैक्षणिक संस्थानों में महिलाओं के साथ होने वाली यौन प्रताड़ना
से उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए दिशा निर्देश जारी किए।
·
नोट-1980 के दशक में देश भर के
महिला संगठनों ने दहेज हत्याओं के खिलाफ आवाज़ उठाई। नवविवाहित युवतियों को उनके पति
और ससुराल के लोगों द्वारा दहेज के लालच में मौत के घाट उतार दिया जाता था। महिला संगठनों
ने इस बात की कड़ी आलोचना करी कि कानून अपराधियों का कुछ नहीं कर पा रहा है। इस मुद्दे
पर महिलाएँ सड़कों पर निकल आईं। उन्होंने आदलत के दरवाजे खटखटाए और आपस में अनुभव व
जानकारियों का आदान-प्रदान किया। अंततः यह समाज का एक बड़ा सार्वजनिक मुद्दा बन गया
और अखबारों में छाने लगा। दहेज से संबंधित कानून को बदला गया,
ताकि दहेज माँगने वाले परिवारों को दंडित किया जा सके।
बन्धुत्व व्यक्त करना:-
·
8 मार्च, अंतर्राष्ट्रीय
महिला दिवस को दुनियाभर की औरतें अपने संघों को ताजा करने और जश्न मनाने के लिए इकट्ठी
होती हैं।
·
हर साल 14 अगस्त को वाघा में
भारत-पाकिस्तान की सीमा पर हज़ारों लोग इकट्ठा होते हैं और एक सांस्कृतिक कार्यक्रम
आयोजित करते हैं।
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